14 जून 2017 : आठ दिन से घूमते हुए अब यात्रा बिल्कुल अंतिम दौर में पहुंच चुकी थी। पद्मनाभ स्वामी मंदिर और कोवलम बीच से आने के बाद अब हमें वापसी की राह पकड़नी थी। तिरुवनंतपुरम् सेंट्रल स्टेशन से हमारी ट्रेन (ट्रेन संख्या 22633) दोपहर 2:15 पर थी। वैसे तो आम दिनों में इस ट्रेन को त्रिवेंद्रम से दिल्ली पहुंचने में 48 घंटे का समय लगता है पर माॅनसून के समय यही ट्रेन दिल्ली पहुंचाने में 52 का घंटे का समय लेती है। एक बजे तक हम लोगों ने सारा सामान पैक किया और खाने के लिए निकल पड़े और स्टेशन परिसर में ही बने फूड प्लाजा में खाना खाया और फिर वापस आकर सामान उठाकर प्लेटफार्म की तरफ चल पड़े। हमें प्लेटफाॅर्म पर पहुंचते पहुंचते 1:45 बज चुके थे। प्लेटफाॅर्म पर गया तो तो देखा कि ट्रेन पहले से ही खड़ी है और अधिकतर यात्री अपनी अपनी सीटों पर बैठ चुके हैं। जब हम अपनी सीट पर गए तो देखा कि कुछ लोग हमारी सीट पर भी कब्जा जमाए हुए हैं। अपनी सीट प्राप्त करने के लिए पहले तो उन लोगों से बहुत देर तक मुंह ठिठोली करनी पड़ी। इस सीट पर से हटाएं तो उस सीट पर बैठ जाएं, वहां से हटाएं तो फिर दूसरी पर। थक हार कर मुझे ये कहना पड़ा कि इस कूपे की सारी सीटें मेरी है। 4 लोगों में से 3 लोग तो आराम से निकल लिए पर चाौथे ने जिद पकड़ रखी थी नहीं जाने की और हमारी भी जिद थी हटाने की, लेकिन फिर हमने सोचा कि चलिए कुछ देर बैठने ही देते हैं फिर देखा जाएगा। इसी दौरान उन महाशय ने ये कह दिया कि क्या आपने ट्रेन खरीद लिया है और इसी बात की जिद से हमने भी उनको सीट से हटा कर ही दम लिया। अपनी ही जगह के लिए इतनी मशक्कत इस यात्रा में पहली ही बार हुआ। खैर मुझे सीट मिल गई और वो भाई साहब कहीं और जाकर बैठ गए।
ट्रेन तिरुवनंतपुरम् सेंट्रल से अपने निर्धारित समय 2:15 पर चल पड़ी। कुछ ही देर में ट्रेन त्रिवेंद्रम शहर के बाहर निकल गई। रेलवे लाइन के दोनों तरफ दूर दूर तक हरे-भरे केले और नारियल के पेड़ के अलावा कुछ और भी दिखाई नहीं दे रहा था। करीब 40 मिनट के सफर के बाद हम कोल्लम जंक्शन स्टेशन पहुंच गए। यहां ट्रेन कुछ देर के लिए रुकी फिर आगे चल पड़ी। जैसा कि केरल के बारे में सुना था वैसी ही खूबसरती रास्ते में दिख रही थी। दूर दूर तक हरियाली के सिवा कुछ भी नहीं था और उसके ऊपर से इस समय यहां माॅनसून का समय था जिससे इस खूबसरती में चार चांद लगा हुआ था। कोल्लम के बाद ट्रेन का अगला पड़ाव कायकुलम था और हम कायकुलम भी समयानुसार ही पहुंच गए। ट्रेन के यहां से चलने के बाद हल्की-हल्की बूंदा-बांदी आरंभ हो चुकी थी जो ट्रेन के सफर की तरह कभी तेज तो कभी कम हो रही थी। ऐसे ही बरसात में ट्रेन अपनी गति से चली जा रही थी और करीब चार घंटे के सफर के बाद हम एरनाकुलम पहुंच गए। एरनाकुलम के बाद शाम ने अपनी दस्तक देनी शुरू कर दी थी जिससे कुछ देर बाद रात्रि के आगमन का आभास होने लगा था। एरनाकुलम के बाद ट्रेन अलुवा नाम के एक छोटे से स्टेशन पर रुकी और हमने यहां प्लेटफार्म पर खाने का सामान बिकता देख तुरंत ही सब लोगों के लिए खाना ले लिया क्योंकि ट्रेन में पेंट्री कार नहीं थी। यहां से ट्रेन के खुलने के बाद हम लोगों ने खाना खाया और सोने की तैयारी करने लगे, इतने में ही थ्रिसूर स्टेशन आ गई।थ्रिसूर से ट्रेन के चलने के तुरंत बाद हम लोग सो गए। इतने दिन की सफर की थकान में नींद ऐसी आई कि कोजीकोड, कन्नूर और मंगलोर से ट्रेन कब गुजर कुछ पता ही नहीं चला और सुबह के करीब चार बजे से जब नींद खुली तो ट्रेन उडुपी स्टेशन पर खड़ी थी। कुछ ही मिनटों में ट्रेन उडूपी को अलविदा कहती हुई अपने अगले पड़ाव कारवार के लिए चल पड़ी जो उडूपी से 190 किलोमीटर दूर थी। कल शाम होने से पहले जो बरसात आरंभ हुई थी वो अभी तक वैसे ही लगातार हो रही थी और रात होने के कारण हम बरसात का लुत्फ उठाने से वंचित रह गए। उडूपी से ट्रेन के खुलने के बाद हम फिर से सो गए और एक ही बार सुबह होने पर ही उठे और उठते ही जो नजारा दिखा उसे देखकर हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। इस समय हम पश्चिमी घाट से गुजर रहे थे उसमें भी बरसात के मौसम में। हर तरफ दूर दूर तक बस हरियाली ही दिख रही थी। जहां तक नजर जा रही थी बस बरसात और दूर पहाड़ों पर काले बादलों का बसेरा।
15 जून 2017 : करीब 7:30 बजे हमारी ट्रेन कारवार स्टेशन पहुंच गई और बरसात अभी भी जारी थी। कारवार के पास से ही एक नदी गुजरती है जिसका नाम काली नदी है। यह कर्नाटक की एक प्रमुख नदी है। इस नदी का उद्गम स्थल पश्चिमी घाट में है और यह पश्चिम की ओर बहती हुई कारवार के पास अरब सागर में मिल जाती है। यह नदी मुख्यतः उत्तरी कनार जिले से होकर बहती है। इस नदी की सहायक नदियाँ ऊपरी कनेरी और तत्थीहल्ला हैं। कारवार पहुंचते ही सबसे पहले हमने यहां कुछ खाने की तलाश करना शुरू किया तो स्टेशन पर बड़ा-पाव के अलावा और कुछ भी नहीं मिल रहा था। बड़ा-पाव लेकर हम फिर वापस ट्रेन में बैठ गए। यहां से ट्रेन चलने के बाद अगला पड़ाव मडगांव था। अब मडगांव का नाम सुनकर किसका मन नहीं करेगा यहां घूमने का। मडगांव गोआ का ही एक स्टेशन है। ट्रेन से गोआ जाने वाले कुछ लोग तो वास्को-डा-गामा स्टेशन पर उतरते हैं और कुछ लोग मडगांव स्टेशन।
ऐसे ही हम गोआ के खयालों में खोए हुए चले जा रहे थे। फिर न जाने मेरे मन में क्या सूझा कि मैंने कंचन से ऐसे ही चिढ़ाने के अंदाज में पूछ लिया कि ऐसा करो आप लोग दिल्ली चले जाओ और मैं एक दिन गोआ घूमकर दिल्ली आ जाऊंगा। इस बात को बोलते समय तो हमने यही सोचा कि मुझ पर कुछ कर्ण-भेदी वाण चलाए जाएंगे पर हुआ इसका उल्टा ही। उन्होंने इस बात के लिए हामी भर दी कि ठीक है हम लोग चले जाएंगे और आप यही उतर जाइएगा क्योंकि उनको भी पता था कि परिवार को बीच रास्ते में तो कोई छोड़ ही नहीं सकता, तो हां कहने में भी कोई गलती नहीं है। ऐसे ही बातों बातों में कब मडगांव आ गया कुछ पता ही नहीं चला, घड़ी पर नजर डाली तो 10 बज चुके थे। अब गोआ घूमने तो जा नहीं सकते तो कम से कम ट्रेन के रुकने पर मडगांव स्टेशन पर तो घूमा ही जा सकता है, तो जैसे ही ट्रेन रुकी हम अपना कैमरा लेकर ट्रेन से बाहर आ गए और कुछ फोटो लेते हुए ऐसे ही स्टेशन का मुआयना करने लगे। ट्रेन यहां करीब आधे घंटे खड़ी रही और अपने समय से 15 मिनट की देरी से ठीक 10:30 बजे यहां से आगे के लिए चल पड़ी।
मडगांव से चलने के बाद ट्रेन एक बड़ी सी नदी को पार कर रही थी जिसका नाम मंडोवी नदी था। इसके कई और नाम हैं जैसे मांडवी, मांडोवी, महादायी या महादेई तथा कुछ स्थानों पर गोमती नदी के नाम से भी जाना जाता है। यह कर्नाटक और गोवा से होकर बहती है। यह नदी गोवा राज्य की एक प्रमुख नदी है और इसे गोवा राज्य की जीवन रेखा भी कहा गया है। इसकी कुल लंबाई 77 किलोमीटर है जिसमें से 29 किलोमीटर कर्नाटक और 52 किलोमीटर गोवा से होकर बहती है। इस नदी का उद्गम पश्चिमी घाट के तीस सोतों के एक समूह से होता है जो कर्नाटक के बेलगाम जिले के भीमगढ़ में स्थित हैं। नदी का जलग्रहण क्षेत्र कर्नाटक में 2032 वर्ग किमी और गोवा में 1580 वर्ग किमी का है। दूधसागर प्रपात और वज्रपोहा प्रपात इस नदी के ही भाग हैं।
एक तो पश्चिमी घाट और कोंकण रेलवे का सफर ऐसे ही रोमांचक होता है और यदि उसके उपर से बरसात हो रही हो तो ये ट्रेन का सफर केवल रेल यात्रा न होकर एक तरह से स्वर्ग का ही सफर हो जाता है। ऊंची ऊंची पहाडि़यां, दूर दूर तक हरियाली, न जाने कितनी सुरंगों से होकर गुजरती हुई ट्रेन और इसके बाद यदि इस सफर में बरसात हो रही तो सफर का आनंद कई गुना बढ़ जाता है। पहाड़ों से गिरते झरने इस सफर को और भी रोमांचित बना देते हैं। कभी कोंकण रेलवे के बारे में टीवी और अखबारों में देखा और पढ़ा करता था जो आज खुली आंखों से हमारे सामने था। यदि मैं अपने शब्दों में कहूं तो अब की गई सभी रेल यात्राओं में हमने जितना आनंद नहीं उठाया होगा उससे ज्यादा केवल इसी एक यात्रा में आनंद आया। चलिए अब आगे की बात करते हैं।
मडगांव के बाद ट्रेन अपने अगले स्टेशन पेरणेम पर कुछ देर रुकी और फिर सिंधुदुर्ग के लिए रवाना हो गई। समूचे रास्ते ऐसे ही लगातार बरसात होती रही। जहां भी ट्रेन कुछ मिनट के लिए रुकती हम झट ट्रेन से बाहर उस बरसात का मजा लेने में व्यस्त हो जाते। यहां एक बात और बताना चाहूंगा वो ये कि इस ट्रेन का टिकट हमने मजबूरी में लिया था, क्योंकि केरला एक्सप्रेस में टिकट मिल नहीं रहा था। जब हमने इस ट्रेन का टिकट लिया था तो हमें ये नहीं पता था कि यही रेल यात्रा मेरे जीवन की सबसे अनोखी और रोमांचक ट्रेन यात्रा होगी, क्योंकि इस ट्रेन से सफर तो पूरे साल में कभी भी किया जा सकता है पर ऐसे दृश्य देखने को हर सफर में नहीं मिलता। कोंकाण रेलवे में दिन का सफर और उसके उपर से बरसात मिलेगी या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं है। ट्रेन चली जा रही थी और हम इन दृश्यों में खोए हुए बस रास्तों को निहारते हुए जा रहे थे और हम कब सिंधुदुर्ग पहुंच गए पता ही नहीं चला। घड़ी देखा तो दोपहर के एक बज चुके थे। मतलब कि हमने लगभग 23 का घंटा सफर हमने पूरा कर लिया था। सिंधुदुर्ग संस्कृत के दो शब्दों सिंधु (समुद्र) और दुर्ग (किला) से मिलकर बना है जिसका अर्थ है समुद्र का किला। इसकी स्थापना शिवाजी ने सन् 1664 में मालवन तालुका के किनारे अरब सागर के एक द्वीप पर किया था।
सिंधु दुर्ग से ट्रेन के चलने के बाद करीब दो घंटे बाद हम रत्नागिरी पहुंचे। त्रिवेंद्रम से रत्नागिरी तक के 1250 किलोमीटर के सफर को पूरा करने में अब तब 25 घंटे लग चुके थे। रत्नागिरी बाल गंगाधर तिलक की जन्मस्थली है। यह महाराष्ट्र के दक्षिण-पश्चिम भाग में अरब सागर के तट पर स्थित है और यह कोंकण क्षेत्र का ही एक भाग है तथा यह पश्चिम में सहयाद्रि पर्वतमाला से घिरा हुआ है। रत्नागिरि प्रसिद्ध अल्फांसो आम के लिए भी जाना जाता है। कुछ संदर्भां के अनुसार रत्नागिरि का एक संबंध महाभारत काल से भी है। कहा जाता है पांडवों ने अपने वनवास का तेरहवां वर्ष रत्नागिरि के आस पास ही बिताया था। यही वो जगह है जहां कभी म्यांमार के अंतिम राजा थिबू तथा वीर सावरकर को कैद कर रखा गया था।
रत्नागिरी के बाद हमारी ट्रेन का अगला पड़ाव चिपलूण नामक जगह था। चिपलुन एक पिकनिक स्थल के रूप में प्रसिद्ध है। इसके पिकनिक स्थल के रूप में विकसित होने के पीछे भी बहुत ही रोचक बात जुड़ी हुई है। ऐसा था कि 80 के दशक में मुंबई से गोवा जाने के लिए प्रतिदिन उड़ाने संचालित नहीं होती थी। उस समय सप्ताह में एक या दो उड़ाने संचालित होती थी। इसलिए पर्यटकों ने सड़क मार्ग द्वारा गोवा जाना आरंभ कर दिया। लेकिन यह रास्ता काफी लंबा पड़ता था। इसलिए रास्ते में एक ऐसे स्थान की जरुरत महसूस की गई जहां पर्यटक आराम कर सकें। ऐसे स्थान को चुनने के लिए होटल ताज ग्रुप ने समाचारपत्रों में विज्ञापन दिया और पर्यटकों से विभिन्न स्थानों के लिए वोटिंग करने को कहा। वोटिंग में 80 प्रतिशत दर्शकों ने चिपलुन के पक्ष में मतदान किया। इस प्रकार एक पर्यटक स्थल के रूप में चिपलुन का जन्म हुआ।
चिपलून के बाद हमारा अगला पड़ाव पनवेल था। ट्रेन हरी भरी वादियों में बहुत सारे सुरंगों से होकर सरपट चली जा रही थी। पनवेल पहुंचने से पहले हमारे व्हाट्स एप और फेसबुक ग्रुप घुमक्कड़ी दिल से के सदस्यों ने हमारी खोज खबर ली कि हम कहां तक पहुंचे तो हमने रत्नागिरी और पनवेल के बीच होने की बात बता दी और बात यहीं खत्म हो गई। कुछ देर बाद ग्रुप के ही एक और घुमक्कड़ सदस्य प्रतीक गांधी ने हमसे केवल इतना ही पूछा कि आपकी ट्रेन पनवेल के बाद किस रास्ते से जाएगी तो हमने पनवेल के बाद वसई रोड स्टेशन का नाम बता दिया। उसके बाद उनका जवाब आया कि हम आएंगे आपसे मिलने। अब देखने के लिए ये एक बिल्कुल छोटा सा मैसेज था पर इस मैसेज के अंदर जो भाव था उस भाव को या तो केवल भेजने वाला या प्राप्त करने वाला ही समझ सकता था। मैंने कंचन को इस बारे में बताया कि एक घुमक्कड़ मित्र हैं, जो मिलने आएंगे। इस बात से वो भी आश्चर्यचकित हो गई। ट्रेन चलती रही और हम पनवेल पहुंच गए। पनवेल से रात 8:45 पर ट्रेन चली और दो घंटे का सफर पूरा करके ठीक दस बजे हमारी ट्रेन वसई रोड पहुंच गई।
जैसा कि प्रतीक गांधी से पहले ही बात हो गई थी कि वो प्लेटफाॅर्म पर आ चुके हैं। मैं भी ट्रेन के रुकने से पहले ही कंचन को साथ में लेकर ट्रेन के दरवाजे के पास आकर खड़े हो गया। ट्रेन के रुकते ही हम जल्दी से ट्रेन से उतरे। मुझे देखते ही प्रतीक जी ने हाथ उपर उठाकर अपनी उपस्थिति का अहसास कराया। ट्रेन से उतर कर उनके पास पहुंचे तो देखा कि प्रतीक भाई के साथ हम घुमक्कड़ों की बुआ दर्शन कौर धनोय भी मुझसे मिलने आई हुई थीं। अब थोड़ा दर्शन कौर के बारे में। दर्शन कौर जी भी एक बहुत बड़ी घुमक्कड़ हैं और घुमक्कड़ी की दुनिया में उनको बुआ का दर्जा प्राप्त है। पहले तो मैं और कंचन दोनों ने बुआ के पैर छूकर आशीर्वाद लिया उसके बाद प्रतीक भाई से भी गले मिला। फिर कुछ फोटो लेने के बाद कुछ आपस में बातें की गई और इतनी देर में ट्रेन के खुलने का समय हो गया। दुबारा फिर से मिलने की बात कहकर नम आंखों से हमने उन दोनों से विदाई ली तब तक ट्रेन खुल चुकी थी। हम ट्रेन में चढ़े और अपनी सीट पर आकर बैठ गए। जाने से पहले बुआ जी ने मेरे हाथ में लडडु का एक डिब्बा दे दिया था। उस डिब्बे में जितने लडडू थे वो तो खत्म हो गए पर उन लडडुओं में जो मिठास थी तो सदा सदा के लिए मेरे मन में बस गई। जब आभासी दुनिया के कुछ लोग वास्तविक दुनिया में मिलते हैं तो उसका वर्णन करने के लिए किसी के पास कोई शब्द नहीं होता है और हमारी मुलाकात भी ऐसे ही हुई। जिन लोगों के बारे में कुछ पता नहीं था, वो लोग इतने प्यार से इतनी रात में अपने घर से दूर स्टेशन पर मुझसे मिलने आए। वसई रोड से ट्रेन के खुलते ही हम सब अपनी अपनी बर्थ पर सो गए। नींद इतनी गहरी आई कि कब सूरत और बड़ौदा गुजर गया पता ही नहीं चला और उस शहर को चाहे स्टेशन ही सही देखने की तमन्ना भी नींद के साथ ही गुजर गई।
16 जून 2017 : सुबह में करीब 6 बजे के आसपास जब नींद खुली तो ट्रेन बड़ौदा और रतलाम के बीच थी जो धीरे धीरे अपनी गति से रतलाम की ओर बढ़ रही थी। रात में सोने से पहले सफर में हम जो बरसात और हरियाली देख रहे थे उस चीज का इधर नामोनिशान नहीं था। इसी तरह चलते हुए करीब 7:30 बजे हम रतलाम पहुंच गए। 15 मिनट रुकने के बाद ट्रेन अगले पड़ाव कोटा की तरफ चल पड़ी। जैसे जैसे दिन चढ़ रहा था वैसे वैसे सूर्य की तपिश भी बढ़ती जा रही थी। करीब साढ़े तीन घंटे के सफर के बाद 11:15 बजे हम कोटा पहुंच गए। यहां तक पहुंचते पहुंचते दिल्ली वाली गर्मी का अहसास होने लगा था। कोटा स्टेशन पर ट्रेन के रुकते ही हमने कुछ खाने का सामान लिया और फिर वापस अपने सीट पर बैठ गए। ट्रेन के यहां से खुलते ही हम लोगों ने खाना खाया और फिर कुछ देर आराम करने के लिए बर्थ लगाकर सो गए। कुछ देर बाद नींद खुली तो हम सवाई माधोपुर पहुंच चुके थे। कुछ देर बाद यहां से ट्रेन खुली और अगले पड़ाव भरतपुर के लिए चल पड़ी। जो हरे भरे नजारे हमें कल पूरे दिन देखने के लिए मिला इधर दूर दूर तक उनका कोई नामोनिशान नहीं था। दूर दूर तक बंजर पड़े खेत और पहाड़ और उसके उपर से चिलचिलाती धूप। यही तो अपनी भारत भूमि है जो एक ही दिन में हर तरह के नजारे देखने को मिलते हैं। कहीं गर्मी, कहीं सर्दी, कहीं बर्फ तो कहीं बरसात। ट्रेन चलती रही और ठीक 3 बजे हम भरतपुर पहुंच गए। भरतपुर के बाद हमारा अगला पड़ाव मथुरा था। ट्रेन भरतपुर से खुली और एक घंटे के सफर के बाद हम मथुरा पहुंच गए। कुछ देर मथुरा में रुकने के बाद हमारी ट्रेन अपने गंतव्य स्टेशन हजरत निजामुद्दीन स्टेशन के लिए चल पड़ी और करीब 2 घंटे के सफर के बाद अपने निर्धारित समय से 20 मिनट पहलेे 6 बजे ही हजरत निजामुद्दीन पहुंच गए और यहां से आॅटो लेकर घर की तरफ प्रस्थान कर गए। इस रोमांचक ट्रेन यात्रा में हमने कुल 3007 किलोमीटर का सफर तय किया जिसे पूरा करने में करीब 52 घंटे का समय लगा। सच कहूं तो ये ट्रेन यात्रा हमारे जीवन की सबसे अनूठी और रोमांचक यात्रा रही और मुझे नहीं लगता कि आगे भविष्य में कभी ऐसी रोमांचक ट्रेन यात्रा कर पाउंगा। यदि कर भी लिया तो पूरे परिवार के साथ नहीं होउंगा तो वो आनंद नहीं रह जाएगा जो इस यात्रा में आया। कुछ खट्टे मीठे अनुभव के साथ हमारी 10 दिन की यह यात्रा समाप्त हुई। अब हम आपसे आज्ञा चाहते हैं और जल्दी ही एक दूसरे यात्रा वृत्तांत के साथ सामने आपके सामने आऊंगा। तक तक के लिए आज्ञा दीजिए।
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