बुधवार, 27 सितंबर 2017

सौर सुजला योजना में अब एक से पांच हार्स का पंप लगा सकते हैं किसान




सौर सुजला योजना में अब एक से पांच हार्स का पंप लगा सकते हैं किसान

सौर सुजला योजना के तहत स्थापित सोलर पंप किसानों की किस्मत को बदलने में अहम भूमिका निभाने लगे है। सिंचाई के लिए मौसम एवं प्रकृति पर निर्भर रहने वाले किसानों के लिए बिना प्रदूषण, आवाज और विद्युत शुल्क का व्यय किए ये पंप सौर उर्जा के माध्यम से किसानों के सहायक बन गए है। पिछले वर्ष पूरे प्रदेश में संख्या दृष्टि से दूसरे स्थान पर महासमुंद जिले के लगभग एक हजार किसानों ने प्रधानमंत्री सौर सुजला योजना के अनुदान का लाभ लेते हुए इसे अपने खेतों में लगाया है। इस वर्ष योजना में आंशिक परिर्वतन किया गया है, और अब किसान 1 एच.पी. से लेकर 5 एच.पी. के पंप अनुदान के माध्यम से लगा सकते है। यह अनुदान अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग के साथ-साथ समान्य वर्ग के किसानों को भी मिलता है।
क्रेडा के सहायक यंत्री श्री संदीप कुमार बंजारे ने बताया कि इस योजना के तहत आवेदन लेने की कार्रवाई की जा रही है। आवेदन पत्र कृषि या क्रेडा विभाग के कार्यालय में दिया जा सकता है। आवेदन पत्र के साथ निवास प्रमाण पत्र, आधार कार्ड, जाति प्रमाण पत्र, जमीन में लगने वाले भूमि फोटो एवं खसरा और रकबा का सत्यापित नक्शा, बैंक पासबुक, स्थापना स्थल के फोटोग्राफ, हितग्राही की दो फोटो और फार्म में लगने वाले प्रोसेसिंग शुल्क की राशि जमा करनी होगी। उन्होंने बताया कि इस योजना के तहत पात्रता ऐसे किसानों को होगी, जिनके पंप में स्थायी विद्युत कनेक्शन नहीं हैं, एक सकल नलकूप से दूसरे नलकूप की दूरी 300 मीटर है, समीप के नदी और नालों में कम से कम 3 फीट पानी होना चाहिए। सोलर पंप कुएं में भी स्थापित किया जा सकता है।
उन्होंने बताया कि एक एचपी का सौर सुजला पंप लगाने के लिए 1200 रूपए का प्रोसेसिंग शुल्क लिया जाता है। पंप के लिए अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के किसानों द्वारा 3500 रूपए, अन्य पिछड़ा वर्ग के किसानों को 6 हजार रूपए और सामान्य वर्ग के किसानों को 14 हजार अंशदान दिया जाता है। शेष राशि अनुदान के रूप में शासन द्वारा दी जाती है। इसी प्रकार 2 एच.पी. पंप का प्रोसेसिंग शुल्क 1800 रूपए है, जिसमें अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति द्वारा 5 हजार रूपए, अन्य पिछड़ा वर्ग द्वारा 9 हजार और सामान्य वर्ग के किसानों द्वारा 16 हजार अंशदान दिया जाता है। शेष राशि शासन द्वारा अनुदान के रूप में दी जाती है। 3 एचपी पंप का  प्रोसेसिंग शुल्क 3हजार रूपए हैं, जिसमें अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति द्वारा 7 हजार रूपए, अन्य पिछड़ा वर्ग द्वारा 12 हजार और सामान्य वर्ग के हितग्राही द्वारा 18 हजार रूपए का अंशदान दिया जाता है। पांच एचपी पंप का प्रोसेसिंग शुल्क 4800 रूपए हैं। इसमें अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति द्वारा 10 हजार रूपए, अन्य पिछड़ा वर्ग द्वारा 15 हजार और सामान्य वर्ग के किसानों द्वारा 20 हजार अंशदान दिया जाता है।

मंगलवार, 26 सितंबर 2017

ओरछा-राजा राम का मंदिर - राम राम राजा राम राम...

ओरछा-राजा राम का मंदिर - राम राम राजा राम राम...
देश में राजा राम चंद्र का एक ऐसा मंदिर है जहां राम की पूजा भगवान के तौर पर नहीं बल्कि राजा के रूप में की जाती है। अब राजा राम हैं तो उन्हें सिपाही सलामी भी देते हैं। हम बात कर रहे हैं मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले में स्थित ओरछा के राजा राम मंदिर की। यहां राजा राम को सूर्योदय के पूर्व और सूर्यास्त के पश्चात सलामी दी जाती है। इस सलामी के लिए मध्य प्रदेश पुलिस के जवान तैनात होते हैं।
राजा राम का मंदिर देखने में किसी राज महल सा प्रतीत होता है। मंदिर की वास्तुकला बुंदेला स्थापत्य का सुंदर नमूना नजर आता है। कहा जाता है कि राजा राम की मूर्ति स्थापना के लिए चतुर्भुज मंदिर का निर्माण कराया जा रहा था। पर मंदिर बनने से पहले इसे कुछ समय के लिए महल में स्थापित किया गया। लेकिन मंदिर बनने के बाद कोई भी मूर्ति को उसके स्थान से हिला नहीं पाया। इसे ईश्वर का चमत्कार मानते हुए महल को ही मंदिर का रूप दे दिया गया और इसका नाम रखा गया राम राजा मंदिर।
आज इस महल के चारों ओर शहर बसा है।
हर रोज आते हैं राजा राम यहां पर
कहा जाता है कि यहां राजा राम हर रोज अयोध्या से अदृश्य रूप में आते हैं। ओरछा शहर के मुख्य चौराहा के एक तरफ राजा राम का मंदिर है तो दूसरी तरफ ओरछा का प्रसिद्ध किला।
मंदिर में राजा राम, लक्ष्मण और माता जानकी की मूर्तियां स्थापित हैं। इनका श्रंगार अद्भुत होता है। मंदिर का प्रांगण काफी विशाल है। चूंकि ये राजा का मंदिर है इसलिए इसके खुलने और बंद होने का समय भी तय है। सुबह में मंदिर आठ बजे से साढ़े दस बजे तक आम लोगों के दर्शन के लिए खुलता है। इसके बाद शाम को मंदिर आठ बजे दुबारा खुलता है।
रात को साढ़े दस बजे राजा शयन के लिए चले जाते हैं। मंदिर में प्रातःकालीन और सांयकालीन आरती होती है जिसे आप देख सकते हैं। देश में अयोध्या के कनक मंदिर के बाद ये राम का दूसरा भव्य मंदिर है।
मंदिर परिसर में फोटोग्राफी निषेध है। मंदिर का प्रबंधन मध्य प्रदेश शासन के हवाले है। पर लोकतांत्रिक सरकार भी ओरछा में राजाराम की हूकुमत को सलाम करती है। ओरछा शहर को कई तरह के करों से छूट मिली हुई है। यहां पर लोग राजा राम के डर से रिश्वत नहीं लेते और भ्रष्टाचार करने से डरते हैं।
महारानी लाई थीं राजा राम को – कहा जाता है कि संवत 1600 में तत्कालीन बुंदेला शासक महाराजा मधुकर शाह की पत्नी महारानी कुअंरि गणेश राजा राम को अयोध्या से ओरछा लाई थीं। एक दिन ओरछा नरेश मधुकरशाह ने अपनी पत्नी गणेशकुंवरि से कृष्ण उपासना के इरादे से वृंदावन चलने को कहा।
लेकिन रानी तो राम की भक्त थीं। उन्होंने वृंदावन जाने से मना कर दिया। गुस्से में आकर राजा ने उनसे यह कहा कि तुम इतनी राम भक्त हो तो जाकर अपने राम को ओरछा ले आओ। रानी ने अयोध्या पहुंचकर सरयू नदी के किनारे लक्ष्मण किले के पास अपनी कुटी बनाकर साधना आरंभ की।
इन्हीं दिनों संत शिरोमणि तुलसीदास भी अयोध्या में साधना रत थे। संत से आशीर्वाद पाकर रानी की आराधना और दृढ़ होती गई। लेकिन रानी को कई महीनों तक राजा राम के दर्शन नहीं हुए। वह निराश होकर अपने प्राण त्यागने सरयू की मझधार में कूद पड़ी। यहीं जल की अतल गहराइयों में उन्हें राजा राम के दर्शन हुए।
रानी ने उनसे ओरछा चलने का आग्रह किया। उस समय मर्यादा पुरुशोत्तम श्रीराम ने शर्त रखी थी कि वे ओरछा तभी जाएंगे, जब इलाके में उन्हीं की सत्ता रहे और राजशाही पूरी तरह से खत्म हो जाए। तब महाराजा शाह ने ओरछा में ‘रामराज' की स्थापना की थी, जो आज भी कायम है।
मंदिर के प्रसाद में पान का बीड़ा – राजा राम मंदिर में प्रशासन की ओर से प्रसाद का काउंटर है। यहां 20 रुपये का प्रसाद मिलता है। प्रसाद में लड्डू और पान का बीड़ा दिया जाता है। हालांकि मंदिर के बाहर भी प्रसाद की तमाम दुकाने हैं जहां से आप फूल प्रसाद आदि लेकर मंदिर में जा सकते हैं। मंदिर के बाहर जूते रखने के लिए निःशुल्क काउंटर बना है। राजा राम मंदिर में रामनवमी बड़ा त्योहार होता है।
बेल्ट लगाकर नहीं जा सकते- आप राजा राम के मंदिर के अंदर बेल्ट लगाकर नहीं जा सकते हैं। इसके पीछे बड़ा रोचक तर्क ये दिया जाता है कि राजा के दरबार में कमर कस कर नहीं जाया जा सकता है। यहां सिर्फ राजा राम की सेवा में तैनात सिपाही ही कमरबंद लगा सकते हैं। आप जूता घर में अपना बेल्ट जमा करके फिर मंदिर में प्रवेश कर सकते हैं।
राजा राम के मंदिर की मूर्तियों के बारे में कहा जाता है कि ये अयोध्या से लाई गई हैं। महारानी की कहानी के मुताबिक उनकी तपस्या के कारण राजा राम अयोध्या से ओरछा चले आए थे। पर स्थानीय बुद्धिजीवी मानते हैं कि बाबर के आदेश पर अयोध्या में राम मंदिर तोड़े जाने के बाद अयोध्या के बाकी मंदिरों की सुरक्षा का सवाल उठने लगा। ऐसी स्थित में कई मंदिरों की बेशकीमती मूर्तियों को ओरछा में लाकर सुरक्षित किया गया।
ऐसा कहा जाता है कि ओरछा के ज्यादातर मंदिरों में जो मूर्तियां हैं वे अयोध्या से लाई गई हैं

शनिवार, 23 सितंबर 2017

राजगीर

राजगीर
तापमान: गर्मियों अधिकतम 40 °C, न्यूनतम 20 °C तथा जाड़ों में अधिकतम 28 °C, न्यूनतम 6 °C
वर्षा: 1,860 मिमी (मध्य-जून से मध्य-सितंबर)
सबसे उपयुक्त: अक्टूबर से अप्रैल
दर्शनीय स्थल
गृद्धकूट पर्वत : इस पर्वत पर बुद्ध ने कई महत्वपूर्ण उपदेश दिये थे। जापान के बुद्ध संघ ने इसकी चोटी पर एक विशाल “शान्ति स्तूप” का निर्माण करवाया है जो आजकल पर्यटकों के आकर्षण का मूख्य केन्द्र है। स्तूप के चारों कोणों पर बुद्ध की चार प्रतिमाएं स्थापित हैं। स्तूप तक पहुंचने के लिए पहले पैदल चढ़ाई करनी पड़ती थी पर बाद में एक “रज्जू मार्ग” भी बनाया गया है जो यात्रा को और भी रोमांचक बना देता है।
वेणुवन : बाँसों के इस रमणीक वन में बसे “वेणुवन विहार” को बिम्बिसार ने भगवान बुद्ध के रहने के लिए बनवाया था।
गर्म जल के झरने : वैभव पर्वत की सीढ़ियों पर मंदिरों के बीच गर्म जल के कई झरने (सप्तधाराएं) हैं जहां सप्तकर्णी गुफाओं से जल आता है। इन झरनों के पानी में कई चिकित्सकीय गुण होने के प्रमाण मिले हैं। पुरुषों और महिलाओं के नहाने के लिए 22 कुन्ड बनाए गये हैं। इनमें “ब्रह्मकुन्ड” का पानी सबसे गर्म (४५ डिग्री से.) होता है।
स्वर्ण भंडार : यह स्थान प्राचीन काल में जरासंध का सोने का खजाना था। कहा जाता है कि अब भी इस पर्वत की गुफ़ा के अन्दर अतुल मात्रा में सोना छुपा है और पत्थर के दरवाजे पर उसे खोलने का रहस्य भी किसी गुप्त भाषा में खुदा हुआ है। वह किसी और भाषा में नहीं बल्कि शंख लिपि है और वह लिपि बिंदुसार के शासन काल में चला करती थी।
जैन मंदिर : पहाड़ों की कंदराओं के बीच बने 26 जैन मंदिरों को आप दूर से देख सकते हैं पर वहां पहुंचने का मार्ग अत्यंत दुर्गम है। लेकिन अगर कोई प्रशिक्षित गाइड साथ में हो तो यह एक यादगार और बहुत रोमांचक यात्रा साबित हो सकती है। जैन मतावलंबियो में विपुलाचल, सोनागिरि, रत्नागिरि, उदयगिरि, वैभारगिरि यह पांच पहाड़ियाँ प्रसिद्ध हैं। जैन मान्यताओं के अनुसार इन पर 23 तीर्थंकरों का समवशरण आया था तथा कई मुनि मोक्ष भी गए हैं।
राजगीर का मलमास मेला : राजगीर की पहचान मेलों के नगर के रूप में भी है। इनमें सबसे प्रसिद्ध मकर और मलमास मेले के हैं। शास्त्रों में मलमास तेरहवें मास के रूप में वर्णित है। सनातन मत की ज्योतिषीय गणना के अनुसार तीन वर्ष में एक वर्ष 366 दिन का होता है। धार्मिक मान्यता है कि इस अतिरिक्त एक महीने को मलमास या अतिरिक्त मास कहा जाता है।
ऐतरेय बह्मण के अनुसार यह मास अपवित्र माना गया है और अग्नि पुराण के अनुसार इस अवधि में मूर्ति पूजा–प्रतिष्ठा, यज्ञदान, व्रत, वेदपाठ, उपनयन, नामकरण आदि वर्जित है। लेकिन इस अवधि में राजगीर सर्वाधिक पवित्र माना जाता है। अग्नि पुराण एवं वायु पुराण आदि के अनुसार इस मलमास अवधि में सभी देवी देवता यहां आकर वास करते हैं। राजगीर के मुख्य ब्रह्मकुंड के बारे में पौराणिक मान्यता है कि इसे ब्रह्माजी ने प्रकट किया था और मलमास में इस कुंड में स्नान का विशेष फल है।
मलमास मेले का ग्रामीण स्वरूप : राजगीर के मलमास मेले को नालंदा ही नहीं बल्कि आसपास के जिलों में आयोजित मेलों मे सबसे बड़ा कहा जा सकता है। इस मेले का लोग पूरे तीन साल इंतजार करते हैं। कुछ साल पहले तक यह मेला ठेठ देहाती हुआ करता था पर अब मेले में तीर्थयात्रियों के मनोरंजन के लिए तरह-तरह के झूले, सर्कस, आदि भी लगे होते हैं। युवाओं की सबसे ज्यादा भीड़ थियेटर में होती है जहां नर्तकियाँ अपनी मनमोहक अदाओं से दर्शकों का मनोरंजन करती हैं।
जीवकर्म : बुद्ध के समय प्रसिद्ध वैध जीवक राजगीर से थे। उन्होंने बुद्ध के नाम एक आश्रम समर्पित किया जिसे कहा जाता है।
तपोधर्म : तपोधर्म आश्रम गर्म चश्मों के स्थान पर स्थित है। आज वहाँ एक हिन्दू मन्दिर का निर्माण किया किया गया है जिसे लक्ष्मी नारायण मन्दिर का नाम दिया गया है। पूर्वकाल में तपोधर्म के स्थल पर एक बौद्ध आश्रम और गर्म चश्मे थे। राजा बिम्बिसार यहाँ पर कभी-कभार स्नान किया करते थे।
सप्तपर्णी गुफा : सप्तपर्णी गुफा के स्थल पर पहला बौद्ध परिषद का गठन हुआ था जिसका नेतृत्व महाकस्सप ने किया था। बुद्ध भी कभी-कभार वहाँ रहे थे, और यह अतिथि संन्यासियों के ठहरने के काम में आता था।
जरासंध का अखाडा़ : हिन्दू मान्यता के अनुसार महान परन्तु दुष्ट योद्धा जिसके बार-बार मथुरा पर हमले से श्री कृष्ण तंग आकर मथुरा-वासियों को द्वारका भेजना पड़ा, इसी स्थान पर हर दिन सैन्य कलाओं का अभ्यास करता था।
लक्ष्मी नारायण मंदिर : गुलाबी रंग वाली हिन्दू लक्ष्मी नारायण मन्दिर अपने दामन में प्रचीन गर्म चश्मे समाए हुए है। यह मन्दिर अपने नाम के अनुसार विष्णु भगवान और उनकी पत्नी लक्ष्मी को समर्पित है।
वास्तविक रूप में जल में एक डुपकी ही गर्म चश्मे को अनुभव करने का स्रोत था, परन्तु अब एक उच्च स्तरीय चश्मे को काम में लाया गया है जो कई आधूनिक पाइपों से होकर आता है जो एक हॉल की दीवारों से जुड़े हैं, जहाँ लोग बैठकर अपने ऊपर से जल के जाने का आनंद ले सकते हैं।
अन्य स्थान : अतिरिक्त पुरातत्व स्थलों में शामिल हैं:
1. कर्णदा टैंक जहा बुद्ध स्नान करते थे।
2. मनियार मठ जिसका इतिहास पहली शताब्दी का है।
3. मराका कुक्षी जहाँ अजन्मित अजातशत्रु को पिता की मृत्यु का कारण बनने का श्राप मिला
4. रणभूमि जहाँ भीम और जरासंध महाभारत की एक युद्ध लड़े थे
5. स्वर्णभण्डार गुफा
6. विश्वशांति स्तूप
7. एक पुराने दुर्ग के खण्डहर
8. 2500 साल पुरानी दीवारें
बिम्बिसार कारागार : घाटी के बीच एक गोलाईदार ढाँचे के खण्डहर हैं जिसके हर कोने में एक बुर्ज है। बिम्बिसार को उसके बेटे अजतशत्रु ने बन्दी बनाया था। इसके बावजूद वह गृधाकुट और बुद्ध को खिड़की से देख सकते थे।
कैसे जाएँ :
वायुमार्ग: निकटतम हवाई-अड्डा पटना (107 किमी).
रेलमार्ग: पटना, गया , वाराणसी, हावड़ा एवं दिल्ली से सीधी रेल सेवा।
सड़क द्वारा: पटना, गया, दिल्ली एवं कोलकाता से सीधा संपर्क।
बिहार राज्य पर्यटन विकास निगम पटना स्थित अपने कार्यालय से नालंदा एवं राजगीर के लिए वातानुकूलित टूरीस्ट बस एवं टैक्सी सेवा भी उपलब्ध करवाता है।

सोमवार, 4 सितंबर 2017

Auli in 1st week of december,

Hello Friends,

I am planning to go Auli in 1st week of december,can you please tell me is there any chance to see the snowfall at that time of period.

Please see my mentioned below itinerary and suggest me if i miss any thing.

Day 1 - Delhi to Haridwar
visit some temples of haridwar and overnight stay at Haridwar.

Day 2 - Leave haridwar early morning (5:00 am) and reach joshimath in the evening.
Overnight stay at Joshimath
Question: I will go by cab from haridwar to joshimath, how much time it will take?
Question: what are the places to see in joshimath?

Day 3 - Joshimath to Mana village
Overnight stay at Joshimath
Question: what are the places to see in mana village?

Day 4 - Joshimat to Auli
Overnight stay at Auli

Day 5 - Auli - Haridwar - Delhi

Thanks

शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

तिरुपति बालाजी (वेंकटेश्ववर भगवान, तिरुमला) दर्शन

तिरुपति बालाजी (वेंकटेश्ववर भगवान, तिरुमला) दर्शन

तिरुपति बालाजी (वेंकटेश्ववर भगवान, तिरुमला) दर्शन





एक बहुत लम्बे इंतज़ार और लम्बे सफर के बाद हम आज उस जगह पर पहुंचे हुए थे, जहाँ हर दिन लाख लोग अपनी अपनी मुरादें लेकर आते रहते हैं लेकिन मैं यहाँ कोई मुराद या मन्नत लेकर नहीं आया था, मैं तो बस उस दिव्य जगह के दिव्य दर्शन के लिए यहाँ आया था। हर दिन सोचा करता था कि आखिर ऐसा क्या है उस जगह पर जहाँ हर दिन इतने सारे लोग जाते हैं और आज हम भी उसी जगह पर पहुंचे हुए हैं। शहरों की भाग दौड़ वाली जिंदगी से दूर यहाँ एक अलग ही शांति थी और इतने सारे लोग एक दूसरे से अनजान होते हुए भी अनजान नहीं दिख रहे थे। यहाँ एक साथ पूरे देश से आये हुए लोग देखे जा सकते हैं। सबकी अलग भाषा, अलग रहन सहन, अलग खान पान होते हुए भी यहाँ सब एक ही रंग में रंगे हुए नज़र आ रहे थे और वो रंग था भक्ति का। इस भीड़ में कुछ दूसरे देश के लोग भी दिखाई दे जाते थे और वो भी यहाँ आकर भक्ति के रंग में सराबोर थे। यहाँ आया हुआ हर व्यक्ति देश, राज्य, जाति, वर्ग, गरीब, अमीर को भूल कर बस भक्ति में लीन अपनी ही धुन में चला जा रहा था। यहाँ की स्थिति को देखकर मन में बस एक ही ख्याल आ रहा था कि काश हर जगह बस ऐसी ही शांति हो, जहाँ कोई किसी के आगे या पीछे न होकर बस एक साथ चल रहे हों। 

आइये अब आज की अपनी बात करते हैं। कल रात सोने से पहले हमने मोबाइल में सुबह 3 बजे का अलार्म लगाया था और 3 बजते ही अलार्म बजना आरंभ हो गया। अलार्म के साथ मेरी नींद भी खुल गई। सफर की थकान के कारण बेड से उठने का मन तो बिलकुल नहीं हो रहा था।  मैंने अलार्म बंद किया और फिर से सोने की कोशिश करने लगे। दुबारा नींद भी नहीं आ पाई थी कि 5 मिनट बाद दूसरे मोबाइल में भी अलार्म बजने लगा। अब तो दोनों मोबाइल ने अपने हाजिरी लगा दी तो उठना ही था। खैर जैसे तैसे उठे और सबको जगा कर मैं नहाने चला गया। पानी बिल्कुल ठंडा था, जो कि नहाने लायक नहीं था। खैर मैं नहा तो ठन्डे पानी से भी लेता पर एक लम्बे सफर पर निकलने के कारण ठन्डे पानी से नहीं नहाया कि कहीं तबियत खराब हो गई तो फिर घुमक्कड़ी का आनंद ही जाता रहेगा। अब नहाने के लिए गरम पानी की जरूरत थी जो बाहर लगे गीज़र से पूरी हो गई। अब हम जल्दी से नहा कर तैयार हुए। सबको तैयार होने के लिए कहकर मैं ये देखने के लिए बाहर निकल गया कि दर्शन के समय कैसे और किस रास्ते से जाया जाये।




अभी सुबह के 4 बजे थे और बाहर कोई मिल नहीं रहा था जिससे कि कुछ पूछा जाये।  करीब एक घंटे से ज्यादा सड़क पर इधर उधर भटकने के बाद मैं वापस कमरे पर आ गया। यहाँ आते हुए मैंने कल्याण कट्टा में लोगो को अपने केश दान करते (मुंडन कराते) हुए देखा तो मन में खयाल आया कि क्यों न हम भी मुंडन करवा ही लें। मेरे इस प्रस्ताव का पत्नी और माताजी ने समर्थन कर दिया। कल्याण कट्टा (जहाँ मुंडन होता है) गेस्ट हाउस (कल्याण चौल्ट्री) के सामने ही था। हम सब लोग मुंडन करवाने चले गए। यहाँ जाते ही हमें एक स्लिप और आधा ब्लेड दिया गया। स्लिप पर सीट की संख्या लिखी हुई थी और वहीं पर आपका मुंडन होगा जो संख्या स्लिप पर लिखी हुई थी। अंदर गया तो कई बड़े बड़े हॉल में मुंडन कर्मचारी बैठे हुए थे और मुंडन करवाने वाले की भीड़ लगी हुई थी। हम लोगों की बारी आने पर हम सबने भी मुंडन करवाया और उसके बाद गेस्ट हाउस आ गए। एक बार तो पहले नहा ही चुके थे और मुंडन करवाने के बाद फिर से नहाने की जरूरत थी तो सबने फिर से नहाया।

मुझे यहाँ 131 और 133 नम्बर का कमरा मिला था। हम मंदिर जाने के लिए निकलने ही वाले थे कि इसी दौरान 132 नम्बर कमरे में ठहरे हुए कुछ लोग आये तो पूछने पर पता चला कि वो लोग दर्शन करके आ रहे हैं और 16 घंटे के बाद उन लोगों ने दर्शन किया था। खैर मैं पहले ही 300 रुपये वाला दर्शन के लिए ऑनलाइन ही बुकिंग करवा रखा था जिसकी बुकिंग तिरुमला तिरुपति देवसंस्थानम की वेबसाइट https://ttdsevaonline.com पर होती है और साथ में 2 लडडू भी मिलते हैं। दर्शन की बुकिंग हर घंटे के हिसाब से होती है और मेरा 10 बजे के दर्शन के लिए बुकिंग थी और जिसके लिए 2 घंटे पहले ATC कार पार्किंग एरिया में रिपोर्ट करनी थी। अब तक 6:15 बज चुके थे और हम लोग मंदिर दर्शन के लिए गेस्ट हाउस से निकल गए तो पता चला कि 300 रूपये वाले दर्शन के लिए धोती जरूरी है। खैर हमने 3 धोतियां खरीदी और फिर कमरे में आकर धोती पहन कर फिर से मंदिर के लिए निकल पड़े। यहाँ पुरुषों के लिए धोती अनिवार्य है तो महिलाओं के लिए साड़ी या सलवार-कुरता अनिवार्य है। पश्चिमी सभ्यता के ड्रेस यहाँ निषेध है। मंदिर के पास जाकर कैमरा, मोबाइल, जूते-चप्पल रखने की मुसीबत से बचने के लिए हमने सब कुछ कमरे में ही छोड़ दिया और साथ में हर उस चीज़ को कमरे पर ही रहने दिया जो मंदिर में ले जाना निषेध था। बस दर्शन पर्ची और पहचान पत्र साथ में रखकर दर्शन के लिए निकले। पूछते पूछते हम 7:30 बजे ATC कार पार्किंग एरिया पहुँच गए।

ठीक 8 बजे अंदर जाने के लिए दरवाजा खोला गया और पर्ची देख देखकर सबको अंदर जाने दिया गया। कुछ आगे बढ़ने पर पर्ची के साथ साथ पहचान पत्र की जाँच करने के बाद ही आगे जाने दिया जा रहा था। कुछ आगे बढ़ने पर हमने देखा कि बड़े बड़े कई हॉल है जहाँ बैठ कर लोग दर्शन के लिए इंतजार कर रहे हैं। हर हॉल में करीब करीब 500-600 लोग थे और यहाँ सबके लिए खाने-पीने की पूरी व्यवस्था थी। जिस क्रम में हॉल में लोग बैठते है उसी क्रम के अनुसार उनको दर्शन के लिए भेजा जाता है। एक हॉल में बैठे लोगों को जब दर्शन के लिए भेजा जाता है तो उस खाली हुए हॉल में नए लोगों को बैठा दिया जाता है और यही क्रम चलता रहता है और 10-11 घंटे के इंतज़ार के बाद दर्शन की बारी आती है। मेरा 300 रुपये वाला बुकिंग था इसलिए मुझे कहीं इंतज़ार नहीं करना था और हम लोग आगे बढ़ते रहे आगे जाते जाते रास्ता सँकरा होता जा रहा था। वैसे ही सँकरे रास्ते से आगे बढे और कुछ आगे बढ़ने पर तिरुपति से तिरुमला तक पैदल आने वाले श्रद्धालुओं को इसी लाइन में मिला दिया गया तो भीड़ और ज्यादा हो गई। अब कुछ और आगे बढ़े तो यहाँ पर सुदर्शन लाइन (हॉल में बैठे लोगों)  को भी इसी लाइन में मिला दिया गया। अब इसका मतलब ये साफ है कि आप चाहे 1000 रूपये वाली पर्ची लो, या 300 वाली पर्ची या फिर चाहे फ्री वाली लाइन हो या तिरुपति से तिरुमला तक पैदल आये हो दर्शन सबको एक साथ ही करनी है बस फर्क ये है कि आपको घंटो तक इंतज़ार नहीं करना होता है और भीड़ में ज्यादा देर तक लाइन में रहना नहीं पड़ता है।

चलिए अब आगे बढ़ते हैं। थोड़ा और आगे बढ़ने पर हम मंदिर के मुख्य दरवाजे पर पहुंच गए। यहाँ एक ही दरवाजे से अंदर जाने और बाहर आने की प्रक्रिया चलती है। बाहर वाले को रोककर अंदर के लोगों को निकलने के बाद फिर अंदर जाने दिया जाता है। खैर लो जी हम मंदिर के अंदर भी पहुँच गए और धीरे धीरे गर्भ गृह वाले भवन में भी पहुँच गए, धीरे धीरे दर्शन के लिए लाइन आगे बढ़ रही थी और भगवान वेंकटेश्वर स्वामी के दर्शन कर रही थी। हमारी भी बारी आई और हमने भी भगवान्  वेंकटेश के दर्शन किये। करीब 12-15 फ़ीट की दूरी से भगवान्  वेंकटेश के दर्शन होते हैं और बस कुछ ही पल उनके सामने आप रुक सकते हैं, और ये कुछ ही पल बस सेकंड भर ही होता है और इस सेकंड भर में ही ऐसा प्रतीत होता है कि मैं मैं नहीं हूँ, बस सब कुछ भूलकर अपने आपको भगवान को समर्पित कर चुके हैं। हमारे दर्शन का समय 10 बजे का था लेकिन 9:30 बजे ही हमने दर्शन कर लिया।  दर्शन के बाद हम करीब 30 मिनट मंदिर प्रांगण में ही बैठे रहे। अब तक अंदर इतनी भीड़ हो गई थी कि मुझे जिसकी उम्मीद नहीं थी। भीड़ इतनी थी कि मंदिर से निकलने में करीब 30 मिनट का समय लगा।




मंदिर से निकलकर हम प्रसाद के लाइन में लग गए जहाँ सबको दही वाली खीर दी जा रही थी। प्रसाद ग्रहण करने के बाद हम लडडू लेने गए और लिए अपनी दर्शन पर्ची दिखाकर 6 लोगों के 12 लडडू लिया। ऑनलाइन दर्शन करने वाले लोगों को लडडू केवल 13 नंबर के काउंटर पर दिया जाता है और पैदल आने वाले और सुदर्शन लाइन से दर्शन करने वाले लोग किसी भी काउंटर से लडडू ले सकते हैं। वैसे एक बात तो है यहाँ के लडडू का कोई जवाब नहीं। लडडू लेने के बाद हम मंदिर परिसर और चीज़ो को देखने बाद करीब 11 बजे हम मेगा किचन की तरफ बढ़ गए। यहाँ एक साथ एक बार में हज़ार से ज्यादा लोग भोजन करते हैं। इतने लोगों के एक साथ भोजन करने की प्रक्रिया यहाँ पूरे दिन चलती है। एक तरफ से लोग आते है खाना खाकर दूसरे तरफ से निकलते जाते हैं। दूसरे लोगों के बैठने के पहले टेबल साफ करने की  प्रक्रिया है वो भी पलक झपकते ही होती है। खाना खाते खाते करीब 12 बज चुके थे। खाना खा चुकने के बाद या यूँ कहिये तो प्रसाद ग्रहण करने के बाद हम यहाँ से सीधे कमरे में आ गए। रास्ते में जगह जगह बैनर और बोर्ड पर पिछले महीने यहाँ दर्शन के लिए आये श्रद्धालुओं, अन्नप्रसादम ग्रहण करने वाले, लडडुओं की संख्या और मुंडन करवाने वाले लोगो की जानकारी उपलब्ध कराई गयी थी वो अपने आप में चौकाने वाली थी। 

दर्शन के लिए आये हुए श्रद्धालुओं की संख्या : 29,00,000 (29 लाख मतलब करीब 1 लाख लोग हर दिन)
अन्नप्रसादम ग्रहण करने वाले लोगों की संख्या : 78,00,000 (78 लाख )
मुंडन करवाने वाले लोगों की संख्या : 14,00,000 (14 लाख)
लडडुओं की संख्या : 1,50,00,000 (1.5 करोड़)

1 बजते बजते हम गेस्ट हाउस पहुंच गए और कुछ देर आराम करने करने बाद करीब 1:30 बजे हम फोटो खींचने और यहाँ के बाजार घूमने के लिए निकले। मंदिर से लौट कर आते हुए मुझे बरगद (तेलुगु में बरगद को मर्रीचटटु कहते हैं) का एक बहुत ही बड़ा पेड़ दिखा था और उसकी फोटो लेने के लिए हमें करीब 1 किलोमीटर जाना पड़ा। ये पेड़ जितने में फैला हुआ था कि इसकी छाया में करीब 500 लोग एक साथ बैठ सकते थे। हमने भी कुछ देर वहां उसकी छाया का आनंद लिया और कुछ सामान की खरीदारी करके वापस कमरे पर आ गए और रास्ते में एक जगह फिर से खाना भी खा लिया। अब तक 3:00 बजे चुके थे। अब हमें यहाँ से वापस तिरुपति जाना था। कुछ देर आराम करने और सामान पैक करते करते 4:30 बज गए। करीब 4:45 बजे हम गेस्ट हाउस से वापस जाने के लिए निकले और सीधा बस पड़ाव पर पहुंच गए। बस पड़ाव पर लोगों की भीड़ बहुत ही ज्यादा थी, फिर भी एक बस में मुझे सीट मिल गई। बस खुलने से पहले मैंने कंडक्टर से ये पूछ लेना उचित समझा कि मैंने आने-जाने का टिकट एक साथ ले लिया तो वो टिकट आपकी बस में मान्य है या नहीं। कंडक्टर के अनुसार मेरा टिकट तिरुमला आने वाले हर बस में मान्य था। वैसे तिरुपति से तिरुमला और तिरुमला से तिरुपति के लिए मंदिर समिति द्वारा संचालित फ्री बस सेवा भी उपलब्ध है, लेकिन फ्री होने कारण उसमे इतनी भीड़ होती है खड़े होकर भी यात्रा करना बहुत ही मुश्किल काम है। 




हमारी बस जल्दी ही बस यहाँ से तिरुपति के लिए प्रस्थान कर गई। जब रात में मैं तिरुपति से तिरुमला आ रहा था तो ऊपर से तिरुपति शहर ऐसा लग रहा था जैसे आकाश जमीन पर आ गया हो और इस समय पूरा तिरुपति शहर साफ दिख रहा था। इसकी खूबसूरती इस समय बिलकुल किसी सपने के शहर के जैसा लग रहा था। करीब एक घंटे के सफर के बाद 6:00 बजे बस तिरुपति रेलवे स्टेशन पहुँच गई। रेलवे स्टेशन के पास ही विष्णु निवासम में मैंने पहले से ही कमरा बुक कर रखा था। तिरुपति में मंदिर समिति के तीन गेस्ट हाउस हैं जिनके नाम माधवन, श्रीनिवासम और विष्णु निवासम, जिसमे से विष्णु निवासम तिरुपति रेलवे स्टेशन के सामने है। बस से उतरकर हम सीधा गेस्ट हाउस में गए और यहाँ मुझे चौथे मंज़िल पर 456 और 467 नंबर का कमरा मिला। कमरे में जाते ही सबने पहले रात की अधूरी नींद पूरी की और जब बादलों की गड़गड़ाहट की आवाज से आँख खुली तो 8 बज चुके थे और बाहर भारी बारिश हो रही थी। अब तो तिरुपति का बाजार भी घूम पाना मुश्किल था। खाने के लिए पता किया तो मालूम हुआ कि खाने का इंतज़ाम दूसरी मंज़िल पर है और तिरुमला की तरह यहाँ भी खाना फ्री है। हम लोग दूसरी मंज़िल पर जाकर एक बार अन्नप्रसादम ग्रहण किये (खाना खाये) और फिर अपने कमरे में आकर कल की तैयारी करके सोने की तैयारी में ही थे कि मेरे एक मित्र नरेंद्र शोलेकर जी का एक मैसेज आया और उस मैसेज के अनुसार मुझे अपनी कल की योजना में बदलाव करना पड़ा और पद्मावती मंदिर में देवी के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 

ऐसे तो कल के मेरी प्लांनिग के अनुसार कल सुबह उठकर तिरुपति का बाजार घूमना था और फिर 10 बजे की ट्रेन से चेन्नई और फिर रामेश्वरम लेकिन नयी योजना के अनुसार कल सबसे पहले पद्मावती देवी के दर्शन करना उसके बाद 10 बजे की ट्रेन से चेन्नई और फिर रामेश्वरम जाने का प्लान बना। इस पोस्ट में बस इतना ही, पद्मावती मंदिर की कहानी अगले पोस्ट में। बस जल्दी ही मिलते है अगले पोस्ट के साथ। 



कुछ बातें तिरुपति बालाजी के बारे में 


तिरुमाला पर्वत पर स्थित भगवान बालाजी के मंदिर की महत्ता कौन नहीं जानता। भगवान व्यंकटेश स्वामी को संपूर्ण ब्रह्मांड का स्वामी माना जाता है। हर साल करोड़ों लोग इस मंदिर के दर्शन के लिए आते हैं। साल के बारह महीनों में एक भी दिन ऐसा नहीं जाता जब यहाँ वेंकटेश्वरस्वामी के दर्शन करने के लिए भक्तों का ताँता न लगा हो। ऐसा माना जाता है कि यह स्थान भारत के सबसे अधिक तीर्थयात्रियों के आकर्षण का केंद्र है। इसके साथ ही इसे विश्व के सर्वाधिक धनी धार्मिक स्थानों में से भी एक माना जाता है।

मंदिर के विषय में अनुश्रुति 
प्रभु वेंकटेश्वर या बालाजी को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि प्रभु विष्णु ने कुछ समय के लिए स्वामी पुष्करणी नामक तालाब के किनारे निवास किया था। यह तालाब तिरुमाला के पास स्थित है। तिरुमाला- तिरुपति के चारों ओर स्थित पहाड़ियाँ, शेषनाग के सात फनों के आधार पर बनीं 'सप्तगिर‍ि' कहलाती हैं। श्री वेंकटेश्वरैया का यह मंदिर सप्तगिरि की सातवीं पहाड़ी पर स्थित है,जो वेंकटाद्री नाम से प्रसिद्ध है।
वहीं एक दूसरी अनुश्रुति के अनुसार, 11वीं शताब्दी में संत रामानुज ने तिरुपति की इस सातवीं पहाड़ी पर चढ़ाई की थी। प्रभु श्रीनिवास (वेंकटेश्वर का दूसरा नाम) उनके समक्ष प्रकट हुए और उन्हें आशीर्वाद दिया। ऐसा माना जाता है कि प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त करने के पश्चात वे 120 वर्ष की आयु तक जीवित रहे और जगह-जगह घूमकर वेंकटेश्वर भगवान की ख्याति फैलाई।
वैकुंठ एकादशी के अवसर पर लोग यहाँ पर प्रभु के दर्शन के लिए आते हैं,जहाँ पर आने के पश्चात उनके सभी पाप धुल जाते हैं। मान्यता है कि यहाँ आने के पश्चात व्यक्ति को जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्ति मिल जाती है। 

मंदिर का इतिहास
माना जाता है कि इस मंदिर का इतिहास 9वीं शताब्दी से प्रारंभ होता है, जब काँच‍ीपुरम के शासक वंश पल्लवों ने इस स्थान पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था, परंतु 15 सदी के विजयनगर वंश के शासन के पश्चात भी इस मंदिर की ख्याति सीमित रही। 15 सदी के पश्चात इस मंदिर की ख्याति दूर-दूर तक फैलनी शुरू हो गई। 1843 से 1933 ई. तक अंग्रेजों के शासन के अंतर्गत इस मंदिर का प्रबंधन हातीरामजी मठ के महंत ने संभाला। 1933 में इस मंदिर का प्रबंधन मद्रास सरकार ने अपने हाथ में ले लिया और एक स्वतंत्र प्रबंधन समिति 'तिरुमाला-तिरुपति' के हाथ में इस मंदिर का प्रबंधन सौंप दिया। आंध्रप्रदेश के राज्य बनने के पश्चात इस समिति का पुनर्गठन हुआ और एक प्रशासनिक अधिकारी को आंध्रप्रदेश सरकार के प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किया गया।

मुख्य मंदिर
श्री वेंकटेश्वर का यह पवित्र व प्राचीन मंदिर पर्वत की वेंकटाद्रि नामक सातवीं चोटी पर स्थित है, जो श्री स्वामी पुष्करणी नामक तालाब के किनारे स्थित है। इसी कारण यहाँ पर बालाजी को भगवान वेंकटेश्वर के नाम से जाना जाता है। यह भारत के उन चुनिंदा मंदिरों में से एक है, जिसके पट सभी धर्मानुयायियों के लिए खुले हुए हैं। पुराण व अल्वर के लेख जैसे प्राचीन साहित्य स्रोतों के अनुसार कल‍ियुग में भगवान वेंकटेश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करने के पश्चात ही मुक्ति संभव है। पचास हजार से भी अधिक श्रद्धालु इस मंदिर में प्रतिदिन दर्शन के लिए आते हैं। इन तीर्थयात्रियों की देखरेख पूर्णतः टीटीडी के संरक्षण में है।

मंदिर की चढ़ाई
पैदल यात्रियों हेतु पहाड़ी पर चढ़ने के लिए तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम नामक एक विशेष मार्ग बनाया गया है। इसके द्वारा प्रभु तक पहुँचने की चाह की पूर्ति होती है। साथ ही अलिपिरी से तिरुमाला के लिए भी एक मार्ग है।

केशदान
इसके अंतर्गत श्रद्धालु प्रभु को अपने केश समर्पित करते हैं जिससे अभिप्राय है कि वे केशों के साथ अपना दंभ व घमंड ईश्वर को समर्पित करते हैं। पुराने समय में यह संस्कार घरों में ही नाई के द्वारा संपन्न किया जाता था, पर समय के साथ-साथ इस संस्कार का भी केंद्रीकरण हो गया और मंदिर के पास स्थित 'कल्याण कट्टा' नामक स्थान पर यह सामूहिक रूप से संपन्न किया जाने लगा। अब सभी नाई इस स्थान पर ही बैठते हैं। केशदान के पश्चात यहीं पर स्नान करते हैं और फिर पुष्करिणी में स्नान के पश्चात मंदिर में दर्शन करने के लिए जाते हैं। 
सर्वदर्शनम
सर्वदर्शनम से अभिप्राय है 'सभी के लिए दर्शन'। सर्वदर्शनम के लिए प्रवेश द्वार वैकुंठम काम्प्लेक्स है। वर्तमान में टिकट लेने के लिए यहाँ कम्प्यूटरीकृत व्यवस्था है। यहाँ पर निःशुल्क व सशुल्क दर्शन की भी व्यवस्था है। साथ ही विकलांग लोगों के लिए 'महाद्वारम' नामक मुख्य द्वार से प्रवेश की व्यवस्था है, जहाँ पर उनकी सहायता के लिए सहायक भी होते हैं।

प्रसादम
यहाँ पर प्रसाद के रूप में अन्न प्रसाद की व्यवस्था है जिसके अंतर्गत चरणामृत, मीठी पोंगल, दही-चावल जैसे प्रसाद तीर्थयात्रियों को दर्शन के पश्चात दिया जाता है।

लड्डू
पनयारम यानी लड्डू मंदिर के बाहर बेचे जाते हैं, जो यहाँ पर प्रभु के प्रसाद रूप में चढ़ाने के लिए खरीदे जाते हैं। इन्हें खरीदने के लिए पंक्तियों में लगकर टोकन लेना पड़ता है। श्रद्धालु दर्शन के उपरांत लड्डू मंदिर परिसर के बाहर से खरीद सकते हैं।

ब्रह्मोत्सव
तिरुपति का सबसे प्रमुख पर्व 'ब्रह्मोत्सवम' है जिसे मूलतः प्रसन्नता का पर्व माना जाता है। नौ दिनों तक चलने वाला यह पर्व साल में एक बार तब मनाया जाता है, जब कन्या राशि में सूर्य का आगमन होता है (सितंबर, अक्टूबर)। इसके साथ ही यहाँ पर मनाए जाने वाले अन्य पर्व हैं - वसंतोत्सव, तपोत्सव, पवित्रोत्सव, अधिकामासम आदि।

विवाह संस्कार
यहाँ पर एक 'पुरोहित संघम' है, जहाँ पर विभिन्न संस्कारों औऱ रिवाजों को संपन्न किया जाता है। इसमें से प्रमुख संस्कार विवाह संस्कार, नामकरण संस्कार, उपनयन संस्कार आदि संपन्न किए जाते हैं। यहाँ पर सभी संस्कार उत्तर व दक्षिण भारत के सभी रिवाजों के अनुसार संपन्न किए जाते हैं।

रहने की व्यवस्था
तिरुमाला में मंदिर के आसपास रहने की काफी अच्छी व्यवस्था है। विभिन्न श्रेणियों के होटल व धर्मशाला यात्रियों की सुविधा को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं। इनकी पहले से बुकिंग टीटीडी के केंद्रीय कार्यालय से कराई जा सकती है। वैसे आजकल तो इंटरनेट का जमाना है तो इसकी बुकिंग तिरुमला-तिरुपति देवसंस्थानम की वेबसाइट पर हो जाती है और बुकिंग 2-3 माह पहले करवानी पड़ती है। 

कैसे पहुँचें?
तिरुपति सड़क और रेलमार्ग द्वारा देश के सभी शहरों से जुड़ा है। देश के बड़े शहरों से तिरुपति तक पहुँचने के लिए सीधी रेल सेवा है। इसके अलावा जिन शहरों से तिरुपति तक रेल सेवा नहीं है वो चेन्नई होते हुए तिरुपति जा  सकते हैं। चेन्नई से तिरुपति की दूरी करीब 150 किलोमीटर है। चेन्नई से तिरुपति जाने के लिए बसें भी बहुतयात में उपलब्ध है। तिरुपति से तिरुमला तक बस से या पैदल जाना होता है। 

मंदिर में दर्शन 
भगवान वेंकटेश्वर मंदिर में दर्शन चार तरह से होते हैं :
1. ऑनलाइन बुकिंग द्वारा जिसकी बुकिंग https://ttdsevaonline.com पर दो से तीन महीने पहले करनी होती है और दिए गए तारीख को आप दिए समय से 2 घण्टे पहले लाइन में लगना होता है और दर्शन करने में करीब 2 घंटे का वक़्त लगता है। इसकी बुकिंग भी हर घंटे के हिसाब से होती है। इस दर्शन की बुकिंग के लिए 300 रूपये प्रति व्यक्ति के हिसाब से बुकिंग के समय ऑनलाइन भुगतान करना पड़ता है और  दर्शन के बाद प्रसाद के रूप में 2 लडडू मुफ्त। 
2. अगर आपने ऑनलाइन  बुकिंग नहीं तो तिरुमला स्थित किसी भी बैंक में 1000 रूपए भुगतान करके 300 रूपए वाला कूपन लेकर दिए गए समय से 2 घण्टे पहले लाइन में लगे और 2 घंटे में दर्शन करें। 
3. फ्री दर्शन लाइन इसे सुदर्शन लाइन कहते हैं। यह 12 से 14 घण्टे हॉल में बैठने के बाद दर्शन के लिए छोड़ते हैं। 
4. अगर आप ट्रेकिंग पथ से तिरुपति से तिरुम्माला जाये तो 50 रूपये के पर्ची कटवाना पड़ता है और करीब 10 किमी की आसान चढ़ाई है और दर्शन मात्र 3 घंटे में होंगे और प्रसाद के रूप में 1 लड्डू फ्री। जब आप तिरुपति से तिरुम्माला पैदल जा रहे होते है तो ये यात्री पैदल ही जा रहा है या नहीं ये देखने के लिए पूरे रास्ते में 3-4 जगहों पर चेकिंग होती है। 

रामेश्वरम मंदिर में दर्शन

रामेश्वरम मंदिर में दर्शन के बाद आइये अब चलते हैं रामेश्वरम के अन्य दर्शनीय स्थानों का भ्रमण करते हैं। मंदिर में दर्शन, पूजा-पाठ, कुछ शॉपिंग आदि करते-करते 10:30 बज चुके थे। लोगों से पूछने पर पता चला कि अन्य स्थानों पर जाने के लिए बस या ऑटो अग्नितीर्थम के पास ही मिलेंगे तो हम एक बार फिर से अग्नितीर्थम के पास आ गए। यहाँ कुछ ऑटो वाले खड़े थे जो रामेश्वरम घूमने के लिए लोगों से पूछ रहे थे। हमने कई ऑटो वाले से बात किया तो सबने सब जगह घुमाकर फिर से यहीं पर या रेलवे स्टेशन तक छोड़ने के लिए 500 रुपए की मांग की। पैसे तो वो ज्यादा नहीं मांग रहे थे पर समय 2 घंटे से ज्यादा देने के लिए तैयार नहीं थे, पर 2 घंटे में इतनी जगह घूम पाना बिल्कुल ही असंभव था। बहुत करने पर एक ऑटो वाला 2:30 घंटे समय देने के लिए तैयार हुआ पर इतना समय भी बिल्कुल अपर्याप्त था, लेकिन ऑटो वाले इस बात की गारंटी ले रहे थे कि इतने समय में सब पूरा हो जायेगा और यदि उनकी बात मानकर हम चले भी जाते हैं तो चेन्नई की तरह यहाँ भी लफड़ा होना निश्चित था। यही सब सोचकर मैंने बस से ही जाना उचित समझा और एक दुकान से पानी लिया और बातों बातों में उनसे बस के बारे में कुछ जानकारी ले लिया और चल पड़े बस स्टैंड के ओर।  


बस स्टैंड अग्नितीर्थम घाट से करीब 200 मीटर उत्तर की ओर है। जब हम वहां पहुंचे तो धनुष्कोडी बीच जाने वाले बस खड़ी थी तो हम लोग बस में बैठ गए। बस खुलने में अभी 15 मिनट बाकी था तो हमने वहां आस पास के लोगो से कुछ जानकरियां लेनी चाही और बिलकुल सटीक जानकारी मिली कि घूमने के लिए बस से जाना उचित नहीं है क्योंकि वापसी में दिक्कत हो सकती है और बस सीधे धनुषकोडि बीच जाएगी और वहीं से वापस आएगी। इस समय एक अच्छी बात ये हुई कि मेरे एक मित्र नरेंद्र शोलेकर ने जिस राजू ऑटो वाले का नंबर दिया था उससे बात हो गई। राजू ऑटो वाले ने भी 500 रुपए माँगा और साथ ही उसने ये भी कहा कि पैसे तो हम भी उतने ही लेगें जितने और लोग मांग रहे है पर मेरे तरफ से समय की कोई पाबंदी नहीं होगी। जितने भी देर आप लोगों को लगे मैं उतना समय देने के लिए तैयार हूँ और मुझे इससे ज्यादा तो चाहिए ही नहीं था क्योंकि एक अनजान जगह पर इतना भरोसा मिलना मुश्किल होता है जो मुझे मिल रहा था। उससे बात होने के बाद हम लोग बस से उतर गए। कुछ ही मिनटों में वो दौड़ता हुआ आ पहुंचा और हमसे बात करने के बाद वो ऑटो लाने चला गया। करीब 10 मिनट बात वो ऑटो लेकर आया तो हम लोग ऑटो में बैठे और चल पड़े सबसे पहले धनुषकोडि बीच की तरफ। 

अब हम चल पड़े थे धनुष्कोडि की राह पर। एक नई जगह को देखने का रोमांच फिर से मन में भर गया।  सबसे ज्यादा उत्साहित तो आदित्या था जो खुद तो रोमांचित हो ही रहा था और साथ ही पापा जी, पापा जी हम लोग कहां तक जायेंगें कहते हुए मुझे भी रोमांचित कर रहा था। कुछ ही देर में ऑटो बाजार को पीछे छोड़ते हुए एक सुनसान और साफ सुथरी सड़क पर आ गई। इस सड़क पर भीड़ नाम की कोई चीज़ नहीं थी, इक्का-दुक्का ऑटो या बस कुछ देर में दिख जाते थे। यहाँ सड़क के दोनों तरफ समुद्र थे। पूरे रास्ते सड़क के दाहिने तरफ समुद्र के किनारे किनारे पानी  को रोकने लिए दीवार बनी हुई थी। सड़क के दाहिने तरफ समुद्र की लहरें उसी चंचलता से किनारों से टकरा रही थी लेकिन बाएं तरफ समुद्र बिलकुल शांत था। राजू (ऑटोवाले) ने दूर किसी ऊँचे टीले की तरफ इशारा करते हुए बताया कि वही गंधमादन पर्वत है जिसके ऊपर से हनुमान जी लंका गए थे। कुछ आगे चलने पर सड़क के बाएं तरफ दूर में बने एक मंदिर की ओर इशारा करते हुए राजू ने हमें बताया कि वो विभीषण मंदिर है और उसे राम झरोखा भी कहा जाता है और यहीं पर भगवान् राम ने लंका विजय के पश्चात विभीषण का राज तिलक किया था। वैसे ही वह रामेश्वरम में स्थित कुछ जगहों के बारे में बताते हुए ऑटो ड्राइव कर रहा था। बातों बातों में कब समय बीत गया कुछ पता ही नहीं चला और हम धनुषकोडि बीच पर पहुंच गए।

धनुषकोडि बीच पर पहुंचते ही हम अपना सामन ऑटो में ही छोड़कर चल पड़े समुद्र देखने। बस चन्द कदम की दूरी तय करके हम समुद्र के किनारे पहुंच गए। यहाँ भी समुद्र बिलकुल चेन्नई के जैसा दहाड़ रहा था। हम ठहरे मैदानी इलाके में रहने वाले आदमी तो समुद्र को देखकर पागल होना कोई अचम्भे की बात नहीं है तो हो गए हम भी एक बार फिर से पागल बिलकुल वैसे ही जैसे चेन्नई में मरीना बीच पर हुए थे। एक लहर किनारे पर पहुंच भी नहीं पाती कि पीछे से दूसरी लहर उसे धक्का देते हुए आगे निकल जाने की कोशिश करती और तट से टकराकर फिर वापस लौट जाती। हम भी उन आती जाती लहरों के साथ अठखेलियां करने में व्यस्त हो गए और ये अठखेलियां तब तक जारी रही जब तक हम पूरी तरह से भीग नहीं गए। यहाँ तन के साथ हमारा मन भी भीग चुका था और यहाँ से जाने का मन तो बिलकुल ही नहीं हो रहा था। खैर जाना तो पड़ेगा ही सो हम भी यहाँ से चल दिए। किनारे पर आकर सेतु समुद्रम जाने के लिए पता किया तो मालूम पड़ा कि वो यहाँ से 5 किलोमीटर दूर है और कोई गाड़ी आजकल उधर जा नहीं रही है तो पैदल ही जाना पड़ेगा और इसकी भी कोई गारंटी नहीं है कि पुलिस वाले वहां तक जाने देंगे या नहीं। इन बातों से मायूस होकर हम फिर से ऑटो में आकर बैठ गए और सेतु समुद्रम देखने का मेरा सपना अधूरा रह गया। चलो कुछ तो बाकी रहा फिर से आने के लिए इसी बहाने एक बार और रामेश्वरम का चक्कर लगेगा।

अब आइये आएगी की बात करते हैं। धनुषकोडि बीच के बाद हमारा अगला पड़ाव विभीषण मंदिर था तो हम चल पड़े उसी तरफ। हम जिस रास्ते से आए थे उसी रास्ते से वापस जा रहे थे और रास्ते में ही मुख्य सड़क से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर विभीषण मंदिर पड़ता है तो उस मोड़ पर आकर राजू ने ऑटो को उसी रास्ते पर मोड़ दिया और कुछ ही मिनटों में हम राम झरोखा (जिसे विभीषण मंदिर या कोठंडारमार मंदिर भी कहते हैं) के पास पहुंच गए।  मंदिर में दर्शन करने के पश्चात हम वहां भी समुद्र से अठखेलियां करने पहुंच गए गए।  यहाँ समुद्र शांत और पानी बस घुटने भर ही है तो हम भी कुछ दूर तक चले गए और चलते चलते बालू के टापू पर पहुंच गए। यहाँ लोग बालू से अपने अपने नाम की शिवलिंग बना रहे थे तो हम लोग कैसे पीछे रहते और हम सब भी शिवलिंग के निर्माण में लग गए। हमें ये तो पता था कि इनको बनाने से कुछ होने वाला नहीं है और कुछ देर बाद समुद्र की कोई लहर आएगी और अपने साथ इन को बहा कर ले जाएगी। इसी दौरान मेरे एक घुम्मकड़ मित्र किशन बाहेती (घुमक्क्ड़ी दिल से के एडमिन) का भी फ़ोन आ गया और उन्होंने हमें रामेश्वरम में घूमने के लिए कुछ जगहों की जानकारी दी जिसे मैंने राजू को बताया तो उसने मुझे उन कहा कि आप निश्चिंत रहे मैं आपको इन सभी जगहों पर लेकर जाऊंगा।

अब यहीं की दूसरी बात। यहां पर कुछ लोग एक तैरने वाला पत्थर को कहीं से ले आये थे और लोग उसे देखने में व्यस्त थे तो हमारा पागल मन भी लग गया उनको देखने में। हम कभी उस पत्थर को डूबा कर देखते तो कभी हाथ में उठाकर उसके वजन का अंदाज़ लगाते और ये सोचते कि जहाँ 100 ग्राम का पत्थर भी पानी में डूब जाता है यह 15 से 20 किलो का पत्थर पानी में क्यों नहीं डूब रहा। हम उसे डूबा देते और वो फिर से सतह पर आ जाता। पत्थर से छेड़छाड़ करने के बाद उसके मालिक से जब हमने उस पत्थर की एक फोटो लेने की इजाजत मांगी तो उसने बहुत ही अजीब सा जवाब दिया कि यदि आपको इसका फोटो लेना है तो पहले मुझसे 30 रुपए एक फोटो खिचवाना होगा और मैं उसका प्रिंट भी निकाल कर दूंगा उसके बाद आप जितने चाहे उतने फोटो ले सकते हैं। अब सपरिवार इतनी दूर से यात्रा पर आये हैं और कोई फोटो सबकी इकट्ठे तो हो नहीं पाती है तो यहीं पर 30 रूपये देकर एक फोटो बनवा लिया और फिर उसके बाद हर किसी ने अपने हाथ में पत्थर उठाकर एक एक फोटो लिया, तो कुछ ने उसे पानी में डुबाते हुए फोटो लिया और फिर चल पड़े वापसी की राह पर। 

सच कहूं मित्रों तो ये जगह कुछ ही घंटो में मन में ऐसे बस गई कि यहाँ से वापसी में मन उदास हो रहा था और ये बात राजू भी ऑटो चलाते हुए  गौर कर रहा था तभी उसने मुझसे पूछा कि क्या कुछ छूट गया जो आप उदास हैं। अब मैं उसे क्या बताता कि क्या क्या छूट गया। बस यूँ ही बात को टाला और उसके घर परिवार के बारे में पुछा तो उसने सब कुछ ऐसे बता दिया जैसे कोई पुराना मित्र हो। अब तक हम राजू से और राजू हमसे घुल मिल चुके थे तभी वो रास्ते में मिलने वाले हर चीज़ के बारे में हमें बहुत ही विस्तार से बता रहा था और हम उसकी बातों को ध्यान से सुन रहे थे। सड़क बिलकुल खाली थी और इस खाली सड़क पर ऑटो अपनी पूरी गति से दौड़ता जा रहा था और हवा के दवाब इतना अधिक हुआ कि मेरे सर से टोपी उड़ गई और मैंने इस बात को  इग्नोर कर दिया कि 100 रूपये की टोपी के लिए क्या ऑटो रुकवाना पर बेटे ने टोपी उड़ते हुए देख लिया तो उसने अपनी माँ को बता दिया कि पापा की टोपी उड़ गई और ये बात राजू ने भी सुन लिया और ऑटो को रोकते रोकते हम एक किलोमीटर दूर आ चुके थे। मेरे मना करने के बाद भी राजू ऑटो को वापस उस जगह पर लेके आया जहां टोपी हमारा इंतज़ार कर रही थी। अब ऐसे लोगों के प्रति दिल में अपने आप एक सम्मान जाग जाता है, शायद कोई और ऑटो वाला होता तो वो इतनी दूर एक टोपी के लिए वापस नहीं जाता। 

कुछ देर के सफर के बाद हम फिर से रामेश्वरम शहर में प्रवेश कर चुके थे और राजू हमें सब कुछ समझाता हुआ जा रहा था और बातों बातों में हम कब पंचमुखी हनुमान मंदिर के समीप पहुंच गए और पता भी नहीं चला। ऑटो से उतरकर मंदिर में प्रवेश किये तो बाहर ही काले पत्थर से निर्मित हनुमान जी के पंचमुखी रूप के दर्शन हुए। इसके बाद हम मंदिर के अंदर जाकर अन्य देवी देवताओं के दर्शन किये उसके बाद चल पड़े लक्ष्मण मंदिर। लक्षमण मंदिर हनुमान मंदिर से ज्यादा दूर नहीं है। हनुमान मंदिर से लक्षमण मंदिर आने के दौरान रास्ते में एक मंदिर के बारे में राजू ने बताया कि वो सीता मंदिर है पर निर्माण कार्यों के चलते अभी बंद है और आगे बढ़ता रहा। कुछ ही देर में वो फिर एक और मंदिर के पास जाकर रुका और उसके बारे में उसने बताया के ये नाग मंदिर है और वहीं नाग कुंड भी था। नाग मंदिर के दर्शन के बाद उसने हमें कुछ और जगह दिखाया और सबसे अंत में हम भूतपूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के घर देखने गए, वही गांव की पतली गलियां, ग्रामीण परिवेश बिलकुल मन को मोह लेते हैं। मार्केटिंग के ज़माने में वहीँ पर एक शंख और सीपी बेचने के लिए मॉल बना दिया गया है। जगह को देखकर ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा था जैसे इन गलियों में एक कभी इस देश का एक महान वैज्ञानिक और एक राष्ट्रपति खेला करते थे। 

यहाँ के बाद हम चल पड़े उसी पम्बन ब्रिज को देखने जिसे में रात में अँधेरा होने के कारण देख नहीं सके थे और कुछ देर के सफर के बाद हम पहुंच गए एक ऐसी जगह पर जिसे देखने की तमन्ना लिए हुए हम रामेश्वरम आये थे। यहाँ आते आते एक बात और हुई कि पूरे दिन मेहनत करने के बाद मेरा कैमरा और मोबाइल थक कर सो चुका था और दूसरा कैमरा सुबह से ही होटल में आराम फरमाने में लगा था। पम्बन ब्रिज समुद्र पर बना भारत का पहला रेल पुल है। यही वो पुल है जिसके द्वारा रामेश्वरम पूरे देश से जुड़ा है। इसकी लम्बाई 2.5 किलोमीटर है। इस पुल में कुल 79 पिलर हैं जिसमे से 64 समुद्र के अंदर है। इस पुल को पार करते समय ट्रेन की गति बहुत धीमी रखी जाती है और ट्रेन के गुजरने के बाद एहतियात के तौर पर पुल का निरीक्षण भी किया जाता है। जब ट्रेन पुल को पार कर रही होती है तो ऐसा अहसास होता है जैसे ट्रेन किसी पुल पर से न गुजरकर पानी में ही चल रही है। यहाँ छोटे छोटे जहाज और रंग बिरंगी नावों का मनमोहक दृश्य भी देखने को मिलता है। सबसे अद्भुत पल तब होता है जब रेल पुल के नीचे से जहाजों के गुजरने के लिए पुल को बीच से खोल कर उठा दिया जाता है, पर ये नज़ारा हमें देखने को नहीं मिल सका। कुछ समय यहाँ गुजारने के बाद हम वापस गेस्ट हाउस के लिए चल पड़े और कुछ ही देर में हम रेलवे स्टेशन पहुंच गए। यहाँ आकर हमने राजू को 500 रुपए दिए और अपने कमरे की तरफ चल दिए। अब तक 4 बज चुके थे। कुछ देर आराम करने के बाद हम फिर से एक बार मंदिर की तरफ चल पड़े और इसके भी कई कारण थे, जैसे पहला कारण मंदिर में बने उस लम्बे गलियारे को देखना जिसे सुबह हम लोगों ने नहीं देखा था, दूसरा कारण सुबह से कुछ खाये नहीं थे और इधर उत्तर भारतीय खाना मिल नहीं रहा था जो मंदिर के समीप ही बांगर यात्री  निवास या अग्रवाल भवन में मिलेगा, तीसरा कारण कुछ खरीदारी भी करनी थी। 

फिर से मंदिर की तरफ जाने से पहले  सामान को ठीक से पैक कर लिया गया कि आने के बाद सीधा सामान उठाएं और ट्रेन की तरफ चल दें। ये सब करते करते 4:30 बज चुके थे और  निकल पड़े फिर से मंदिर की तरफ। 15 मिनट के पैदल सफर के बाद हम मंदिर के पश्चिमी दरवाजे पर पहुंच गए और चल पड़े उस लम्बे गलियारे को देखने। इस पूरे गलियारे का चक्कर लगाने में करीब घंटे भर का समय लगा। उसके बाद हम कुछ शॉपिंग करके होटलों की खाक छानने लगे पर जहाँ भी जाते एक ही जवाब मिलता कि खाना 7 बजे मिलेगा तो हम लोगों ने ऐसे ही घूमते हुए 7 बजा दिए। ठीक 7 बजे  एक बार फिर से बांगर यात्री निवास पहुंचे और 70 रुपए प्रति व्यक्ति के हिसाब से 5 लोगों का खाना लिया और खाकर फिर से स्टेशन की तरफ रवाना हो गए। 8:00 बज चुके थे और 8:45 पर हमारी ट्रेन थी इसलिए हमने  पैदल न जाकर 30 रूपये देकर एक ऑटो से स्टेशन आ गए। 8:15 बज चुके थे। हम सबने अपना सामान उठाया और प्लेटफार्म पर आकर ट्रेन का इंतज़ार करने लगे। कुछ देर में ट्रेन भी आ गई और हम ट्रेन में बैठ गए। ट्रेन अपने निर्धारित समय 8:45 पर रामेश्वरम से कन्याकुमारी के लिए प्रस्थान कर गई। पम्बन ब्रिज के पार होने तक हम लोग अपनी बर्थ पर बैठे रहे और उसके बाद अपनी थकान दूर करने के लिए सो गए क्योंकि कल का दिन भी आज की तरह ही बिलकुल व्यस्त रहने वाला दिन होने वाला था। 

अब हम आप सबसे आज्ञा लेते हैं और जल्दी ही मिलते हैं कन्याकुमारी में। 

कुछ बातें धनुषकोडि बीच के बारे में 

यहाँ देवदार और नारियल के पेड़ों की भरमार है। सड़क के दोनों तरफ दूर दूर तक बस समुद्र ही समुद्र, एक तरफ हिन्द महासागर तो दूसरी तरफ अरब सागर। जहाँ तक नज़र जाएगी नीचे नीला समुद्र और ऊपर नीला आसमान ही दिखाई देगा। यह एक ऐसा स्थान है जहाँ मिथ, रहस्य, रोमांच सब कुछ एक साथ मिलता है। यह जगह रामेश्वरम शहर से करीब 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस पूरे रस्ते में टूटी-फूटी जर्जर इमारतें, नष्ट हो चुकी रेलवे लाइन और उजड़े हुए आशियानों के निशान हर जगह देखने को मिल जाता है। सन 1964 से पहले यह एक खूबसूरत शहर हुआ करता था और 22 दिसंबर 1964 की रात में आये एक बड़े तूफान ने इस शहर को पूरी तरह तबाह कर दिया। इस तूफान ने हज़ारों लोगों के जिंदगी छीन ली। पूरा शहर वीरान और खंडहर हो चुका था और उसके बाद इसे उसी उजड़े हुए रूप में सदा सदा के लिए छोड़ दिया गया। आजकल कुछ लोगों द्वारा इसे भूतहा शहर भी दर्जा दे दिया गया है। आज भले यहाँ आने के एक मात्र साधन सड़क मार्ग है पर 22 दिसंबर 1964 से पहले तक यहाँ ट्रेन भी आती थी। जैसा कि कुछ लोगों ने बताया कि उस तूफान में ट्रेन सवारियों सहित समुद्र में लापता हो गई और उसका कुछ भी पता नहीं चला।

गंधमादन पर्वत 
रामेश्वरम का एक नाम कभी गंधमादन हुआ करता जो इसी पर्वत के नाम पर था। यह इस द्वीप की सबसे ऊंची जगह है। रामेश्वरम शहर से इस जगह की दूरी करीब 3 किलोमीटर है। यहाँ से पूरा द्वीप दिखाई देता है। यहाँ की एक बात जो सबसे बड़े बात है वो ये कि यहाँ प्रभु श्री राम के  पद चिह्न हैं, जिनका दर्शन करने बड़ी संख्या में लोग यहाँ आते हैं। 

समुद्र देखने का अद्वितीय रोमांच 
पारदर्शी समुद्र की सतह पर तैरते नावों को देखना किसी काल्पनिक सपने की दुनिया में खोने जैसा लगता है। यहाँ कोई शोर नहीं है, कोई भीड़ भाड़ नहीं है, किसी से आगे निकल जाने कोई कोई आपाधापी नहीं  है, अगर कुछ है तो पानी के साथ अठखेलियां। यहाँ रंग बिरंगे कोरल रीफ और शांत पानी के समुद्री जीव जंतुओं और मछलियों को बड़ी आसानी से देखा जा सकता है जो किसी और बीच पर देख पाना दुर्लभ है। यहाँ समुद्र की भीतर बसी दुनिया को समुद्र  बाहर से भी देख सकते हैं। 

रामेश्वरम के अन्य दर्शनीय स्थान 
रामनाथ स्वामी मंदिर, मंदिर में बना एशिया का सबसे बड़ा गलियारा, अग्नितीर्थम, पम्बन ब्रिज, वैज्ञानिक और भूतपूर्व राष्ट्रपति कलाम का घर,  लक्ष्मण मंदिर, सीता मंदिर, नाग मंदिर, धनुष्कोडी बीच, गंधमादन पर्वत, विभीषण मंदिर, रामसेतु के अवशेष और भी न जाने कितनी जगहें जो देखने लायक है।