मंगलवार, 10 अक्तूबर 2017

जनवरी में वैष्णो देवी यात्रा..... भाग-3

जनवरी में वैष्णो देवी यात्रा..... भाग-3

सभी मित्रों को नमस्कार।

 अपनी वैष्णो देवी यात्रा का तीसरा भाग लेकर मैं आपके सामने हाजिर हूं। पिछले भाग में मैंने आपको बताया था कि हमने बाणगंगा के ठंडे पानी में स्नान किया, ओर चित्र आदि खींचे।

अब उससे आगे.....


               स्नान आदि करने के बाद हम यात्रा पूरी करने के लिए निकल पड़े। हम मुश्किल से 50 मीटर भी नहीं गए होंगे कि कुछ दुकानदार आवाज़ लगाकर हमे रोकने लगे...अरे भैया रुको!! अरे भैया रुको!! हमने बोला भाई! हमे कुछ नहीं लेना, लेकिन हमारे पीछे एक बंदा भागा भागा आ रहा था ओर हमे रुकने के लिए आवाज़ लगा रहा था। वह व्यक्ति केवल मात्र गमछे में था जो उसने लुंगी की तरह लपेट रखा था। वह आकर हमसे बोला कि भाई जी आप अपना बैग चेक करवाओ।  मैं बोला भाई पहले सांस ले ले और ये बता कि ऐसा क्या हो गया जो आप हमारे पीछे आरे हो भागते हुए??  तो उसने कहा कि जहां आपने अपना बैग रखा था, उसके पास मेरे कपड़े भी रखे थे और जब मैं नहाकर फारिग हुआ तो देखा कि मेरा मोबाइल मेरी जेब में नहीं है। मैने एक क्षण की देरी न करते हुए तुरन्त अपना बैग उसके हाथों में थमा दिया और कहा कि भाई जी जल्दी चेक करलो। उसने मेरे कपड़े इधर-उधर करके अच्छी तरह से बैग को चेक किया। बैग में उसका मोबाइल होता तो ही मिलता ना, जब था ही नहीं तो मिलेगा कहां से। खैर, जो हमारा फर्ज बनता था हमण्ड तो पूरा किया। उसकी चेकिंग करने के उपरांत मैंने उसे बोला कि भाई बैग में तो नहीं है, आप एक काम करो कि आप हमारी जेब भी चेक कर लो। उसने बोला कि नहीं नहीं भाई, नही नही भाई , आपने नही उठाया होगा। आप उठाते तो खुद चेक करने के लिए क्यों बोलते?? उसकी न के बावज़ूद भी हमने खुद ही उसे अपनी जेब चेक करवाई। मोबाइल उसमें भी नहीं था। तब वह व्यक्ति क्षमा मांग कर चला गया।  हम भी इस बात को भूल कर आगे को चल दिए।


              रास्ते में सब भक्त माता के जयकारे लगाते हुए आ-जा रहे थे। हम भी उनके जयकारों का जवाब जयकारों से देते हुए चले जा रहे थे। वैष्णो देवी के यात्रा मार्ग में खाने पीने की कोई भी समस्या नहीं है। पर यहां मुफ्त में भंडारे की व्यवस्था बिल्कुल भी नहीं है परंतु रास्ते में पैसे देकर आप कुछ भी, कभी भी, कहीं भी खा सकते हैं। अब चूंकि वैष्णो देवी जम्मू कश्मीर राज्य में है, तो जाहिर सी बात है कि आपको यहां हिमाचल व उत्तराखंड के मुकाबले महंगी चीज मिलेगी। मैने स्वयं अनुभव किया कि मैग्गी की प्लेट उत्तराखंड ओर  हिमाचल में आपको 30 रुपए में आसानी से उपलब्ध हो जाती है , परंतु जम्मू कश्मीर में वही प्लेट आपको 40 रुपयेी की देते हैं। कारण पूछो तो फिर वही घिसा-पिटा बहाना.... के भाई जी। पहाड़ी एरिया है, transport के खर्चे ज्यादा हो जाते हैं। आप तुलना करेंगे तो पाएंगे कि हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के कई सुदूरवर्ती इलाकों में अगर आपको मैग्गी मिल भी जायगी तो उसका रेट वहाँ 40 रुपये होगा, जो उस हिसाब से बिल्कुल जायज़ है। पर जम्मू कश्मीर में तो यातायात के साधन भी बहुत अच्छे हैं, ओर इतना दुर्गम इलाका भी नही है, फिर भी राम भरोसे सब कुछ चल ही रहा है।
खैर, हम तो अपनी यात्रा को जारी रखते हैं। बाण गंगा घाट पर स्नान के बाद हम चलते रहे। खाना पीना तो कुछ था ही नहीं, तो सिर्फ अपने सांस को सामान्य करने के लिए हम रुकते थे।  बीच में कहीं 2 मिनट बैठ गए,  नहीं तो चलते ही रहे। उसके बाद जहां हमने सबसे अधिक विश्राम किया ओर चाय पी,  वह स्थान था अर्धकुंवारी। मुझे बहुत अच्छी तरह याद है, उस समय मैं कोई 5 साल से भी कम उम्र का होऊँगा, जब मैं परिवार सहित माता वैष्णो देवी के दर्शन के लिए आया था। उस समय मैंने अर्धकुंवारी गुफा के दर्शन किए थे, जिसकी स्मृति आज भी मेरे मानस पटल पर जीवित है। उसके बाद से वैष्णो देवी की यह मेरी चौथी यात्रा थी, पर बीच की तीन यात्राओं में कभी भी अर्धकुंवारी के दर्शन नहीं हुए। इस यात्रा में भी नहीं होते, पर उस समय यहां एक रोमांचक घटना घटी।
 अर्धकुंवारी दर्शन के लिए जो पर्ची उपलब्ध रहती है, हमने वो पर्ची काउंटर पर जाकर कटवाई। पर अगर आप आज पर्ची कटवाते हो तो आपको कल दर्शन होंगे। यदि आप कल कटवाते हो तो आपको अगले दिन दर्शन होंगे। कहने का तात्पर्य है कि अर्धकुंवारी पर इतनी अधिक भीड़ रहती है कि आपका उसी दिन नंबर पड़ना  बहुत मुश्किल है। हम अपनी पर्ची कटवाकर नीचे आए। हम सोच रहे थे कि 1 कप चाय और पी ली जाए कि तभी एक व्यक्ति हमारे पास आया। वह पूछने लगा कि क्या हमने उसके साथियों को देखा है?? हमने कह दिया कि भाई नहीं, हमने तो नहीं देखा। तब अचानक से उसे उसके साथी मिल गए। उनके पास अर्धकुंवारी की जो पर्ची थी, वो उसी तारीख की ही थी, लेकिन उनकी ट्रेन उस दिन शाम की थी,तो उनका विचार गुफा के दर्शन नही करने का था। बातों बातों में मैंने भी जिक्र चलाया कि भाई, यहां तो इतनी भीड़ है कि माता के दर्शन के लिए नंबर भी नहीं लगता तो उसने कहा कि भाई! हम तो दर्शन नहीं कर पाएंगे, आप ऐसा करो मेरी पर्ची ले लो और आप लोग दर्शन कर लो। उसके पास 7 व्यक्तियों की पर्ची थी पर पर्ची 7 जनों की और हम 2 । हमने पर्ची लेकर उस व्यक्ति का बहुत-बहुत धन्यवाद किया और उसके उपरांत वह चला गया।

                तभी वहाँ हमें मुरादाबाद( U.P.) का रहने वाला एक ग्रुप मिला, जो पास में खड़ा हमारी बातें सुन रहा था। उस ग्रुप में 8 जने थे तो उनमे से एक आकर हमसे बोला कि भाई जी, हमारा भी कोई जुगाड़ हो सकता है क्या??  मैं बोला कि भाई क्यों नहीं हमारे पास 7 आदमियों की दर्शन पर्ची हैं और हम 2 हैं। आप लोग अगर चाहें, तो आ सकते हैं। उनमें से 5 लोग हमारे साथ वाली पर्ची में हमारे साथ जाने को तैयार हो गए। मैंने और दिवांशु ने अपना सामान लॉकर में जमा करवाया और दर्शन के लिए लाइन में लग गए। लगभग ढाई घंटे के बाद हम अर्धकुंवारी गुफा के मुहाने पर थे ओर मैं मन ही मन माँ का धन्यवाद कर रहा था मुझे दर्शन देने के लिए।


     अर्धकुमारी गुफा एक बहुत संकरी गुफा है, जिसमें से दर्शन करने वाले को रेंग-रेंग कर निकलना पड़ता है। यह गुफा कोई बहुत ज्यादा बड़ी तो नहीं है, लेकिन तंग बहुत है। मान्यता है कि जब श्रीधर के भंडारे से कन्या रूप धारी माँ दुर्गा अंतर्ध्यान हुई थी तो भैरव से बचने के लिए इसी गुफा में माता ने 9 महीने निवास किया था। गुफा के द्वार पर माँ ने लँगूर को प्रहरी बना कर खड़ा किया था। जब लँगूर को हरा कर भैरव गुफा में प्रवेश करने लगा, तो देवी दुर्गा ने अपने त्रिशूल के प्रहार से गुफा के पीछे के भाग को तोड़ा ओर वहां से निकल गईं।


हृदय की बीमारी वाले लोगों को इस गुफा में जाने से बचना चाहिए, क्योंकि बीच में एक जगह ऐसी आती हैं जहां गुफा बहुत सँकरी तो है ही, साथ मे थोड़ा ऊपर भी चढ़ना पड़ता है। गुफा के अंतिम भाग ( जहाँ माता ने त्रिशूल प्रहार किया था) वह बहुत तंग है, ऐसे में हृदय रोग वाले मरीजों को दिक्कत आ सकती है। खैर, हमने सही सलामत गुफा में दर्शन किए और अर्धकुमारी मंदिर से बाहर आ गए। दर्शन उपरांत हमने फटाफट locker से सामान निकाला क्योंकि हल्की हल्की बारिश पड़ने लगी थी। इस बारिश का मतलब था कि अगर हम भीग गए तो समझो बीमार हुए।
 अर्धकुंवारी दर्शन के लिए जो पर्ची उपलब्ध रहती है, हमने वो पर्ची काउंटर पर जाकर कटवाई। पर अगर आप आज पर्ची कटवाते हो तो आपको कल दर्शन होंगे। यदि आप कल कटवाते हो तो आपको अगले दिन दर्शन होंगे। कहने का तात्पर्य है कि अर्धकुंवारी पर इतनी अधिक भीड़ रहती है कि आपका उसी दिन नंबर पड़ना  बहुत मुश्किल है। हम अपनी पर्ची कटवाकर नीचे आए। हम सोच रहे थे कि 1 कप चाय और पी ली जाए कि तभी एक व्यक्ति हमारे पास आया। वह पूछने लगा कि क्या हमने उसके साथियों को देखा है?? हमने कह दिया कि भाई नहीं, हमने तो नहीं देखा। तब अचानक से उसे उसके साथी मिल गए। उनके पास अर्धकुंवारी की जो पर्ची थी, वो उसी तारीख की ही थी, लेकिन उनकी ट्रेन उस दिन शाम की थी,तो उनका विचार गुफा के दर्शन नही करने का था। बातों बातों में मैंने भी जिक्र चलाया कि भाई, यहां तो इतनी भीड़ है कि माता के दर्शन के लिए नंबर भी नहीं लगता तो उसने कहा कि भाई! हम तो दर्शन नहीं कर पाएंगे, आप ऐसा करो मेरी पर्ची ले लो और आप लोग दर्शन कर लो। उसके पास 7 व्यक्तियों की पर्ची थी पर पर्ची 7 जनों की और हम 2 । हमने पर्ची लेकर उस व्यक्ति का बहुत-बहुत धन्यवाद किया और उसके उपरांत वह चला गया।

                तभी वहाँ हमें मुरादाबाद( U.P.) का रहने वाला एक ग्रुप मिला, जो पास में खड़ा हमारी बातें सुन रहा था। उस ग्रुप में 8 जने थे तो उनमे से एक आकर हमसे बोला कि भाई जी, हमारा भी कोई जुगाड़ हो सकता है क्या??  मैं बोला कि भाई क्यों नहीं हमारे पास 7 आदमियों की दर्शन पर्ची हैं और हम 2 हैं। आप लोग अगर चाहें, तो आ सकते हैं। उनमें से 5 लोग हमारे साथ वाली पर्ची में हमारे साथ जाने को तैयार हो गए। मैंने और दिवांशु ने अपना सामान लॉकर में जमा करवाया और दर्शन के लिए लाइन में लग गए। लगभग ढाई घंटे के बाद हम अर्धकुंवारी गुफा के मुहाने पर थे ओर मैं मन ही मन माँ का धन्यवाद कर रहा था मुझे दर्शन देने के लिए।


     अर्धकुमारी गुफा एक बहुत संकरी गुफा है, जिसमें से दर्शन करने वाले को रेंग-रेंग कर निकलना पड़ता है। यह गुफा कोई बहुत ज्यादा बड़ी तो नहीं है, लेकिन तंग बहुत है। मान्यता है कि जब श्रीधर के भंडारे से कन्या रूप धारी माँ दुर्गा अंतर्ध्यान हुई थी तो भैरव से बचने के लिए इसी गुफा में माता ने 9 महीने निवास किया था। गुफा के द्वार पर माँ ने लँगूर को प्रहरी बना कर खड़ा किया था। जब लँगूर को हरा कर भैरव गुफा में प्रवेश करने लगा, तो देवी दुर्गा ने अपने त्रिशूल के प्रहार से गुफा के पीछे के भाग को तोड़ा ओर वहां से निकल गईं।


हृदय की बीमारी वाले लोगों को इस गुफा में जाने से बचना चाहिए, क्योंकि बीच में एक जगह ऐसी आती हैं जहां गुफा बहुत सँकरी तो है ही, साथ मे थोड़ा ऊपर भी चढ़ना पड़ता है। गुफा के अंतिम भाग ( जहाँ माता ने त्रिशूल प्रहार किया था) वह बहुत तंग है, ऐसे में हृदय रोग वाले मरीजों को दिक्कत आ सकती है। खैर, हमने सही सलामत गुफा में दर्शन किए और अर्धकुमारी मंदिर से बाहर आ गए। दर्शन उपरांत हमने फटाफट locker से सामान निकाला क्योंकि हल्की हल्की बारिश पड़ने लगी थी। इस बारिश का मतलब था कि अगर हम भीग गए तो समझो बीमार हुए।

शुक्रवार, 6 अक्तूबर 2017

त्रिवेंद्रम से दिल्ली : एक रोमांचक रेल यात्रा




14 जून 2017 : आठ दिन से घूमते हुए अब यात्रा बिल्कुल अंतिम दौर में पहुंच चुकी थी। पद्मनाभ स्वामी मंदिर और कोवलम बीच से आने के बाद अब हमें वापसी की राह पकड़नी थी। तिरुवनंतपुरम् सेंट्रल स्टेशन से हमारी ट्रेन (ट्रेन संख्या 22633) दोपहर 2:15 पर थी। वैसे तो आम दिनों में इस ट्रेन को त्रिवेंद्रम से दिल्ली पहुंचने में 48 घंटे का समय लगता है पर माॅनसून के समय यही ट्रेन दिल्ली पहुंचाने में 52 का घंटे का समय लेती है। एक बजे तक हम लोगों ने सारा सामान पैक किया और खाने के लिए निकल पड़े और स्टेशन परिसर में ही बने फूड प्लाजा में खाना खाया और फिर वापस आकर सामान उठाकर प्लेटफार्म की तरफ चल पड़े। हमें प्लेटफाॅर्म पर पहुंचते पहुंचते 1:45 बज चुके थे। प्लेटफाॅर्म पर गया तो तो देखा कि ट्रेन पहले से ही खड़ी है और अधिकतर यात्री अपनी अपनी सीटों पर बैठ चुके हैं। जब हम अपनी सीट पर गए तो देखा कि कुछ लोग हमारी सीट पर भी कब्जा जमाए हुए हैं। अपनी सीट प्राप्त करने के लिए पहले तो उन लोगों से बहुत देर तक मुंह ठिठोली करनी पड़ी। इस सीट पर से हटाएं तो उस सीट पर बैठ जाएं, वहां से हटाएं तो फिर दूसरी पर। थक हार कर मुझे ये कहना पड़ा कि इस कूपे की सारी सीटें मेरी है। 4 लोगों में से 3 लोग तो आराम से निकल लिए पर चाौथे ने जिद पकड़ रखी थी नहीं जाने की और हमारी भी जिद थी हटाने की, लेकिन फिर हमने सोचा कि चलिए कुछ देर बैठने ही देते हैं फिर देखा जाएगा। इसी दौरान उन महाशय ने ये कह दिया कि क्या आपने ट्रेन खरीद लिया है और इसी बात की जिद से हमने भी उनको सीट से हटा कर ही दम लिया। अपनी ही जगह के लिए इतनी मशक्कत इस यात्रा में पहली ही बार हुआ। खैर मुझे सीट मिल गई और वो भाई साहब कहीं और जाकर बैठ गए।


ट्रेन तिरुवनंतपुरम् सेंट्रल से अपने निर्धारित समय 2:15 पर चल पड़ी। कुछ ही देर में ट्रेन त्रिवेंद्रम शहर के बाहर निकल गई। रेलवे लाइन के दोनों तरफ दूर दूर तक हरे-भरे केले और नारियल के पेड़ के अलावा कुछ और भी दिखाई नहीं दे रहा था। करीब 40 मिनट के सफर के बाद हम कोल्लम जंक्शन स्टेशन पहुंच गए। यहां ट्रेन कुछ देर के लिए रुकी फिर आगे चल पड़ी। जैसा कि केरल के बारे में सुना था वैसी ही खूबसरती रास्ते में दिख रही थी। दूर दूर तक हरियाली के सिवा कुछ भी नहीं था और उसके ऊपर से इस समय यहां माॅनसून का समय था जिससे इस खूबसरती में चार चांद लगा हुआ था। कोल्लम के बाद ट्रेन का अगला पड़ाव कायकुलम था और हम कायकुलम भी समयानुसार ही पहुंच गए। ट्रेन के यहां से चलने के बाद हल्की-हल्की बूंदा-बांदी आरंभ हो चुकी थी जो ट्रेन के सफर की तरह कभी तेज तो कभी कम हो रही थी। ऐसे ही बरसात में ट्रेन अपनी गति से चली जा रही थी और करीब चार घंटे के सफर के बाद हम एरनाकुलम पहुंच गए। एरनाकुलम के बाद शाम ने अपनी दस्तक देनी शुरू कर दी थी जिससे कुछ देर बाद रात्रि के आगमन का आभास होने लगा था। एरनाकुलम के बाद ट्रेन अलुवा नाम के एक छोटे से स्टेशन पर रुकी और हमने यहां प्लेटफार्म पर खाने का सामान बिकता देख तुरंत ही सब लोगों के लिए खाना ले लिया क्योंकि ट्रेन में पेंट्री कार नहीं थी। यहां से ट्रेन के खुलने के बाद हम लोगों ने खाना खाया और सोने की तैयारी करने लगे, इतने में ही थ्रिसूर स्टेशन आ गई।थ्रिसूर से ट्रेन के चलने के तुरंत बाद हम लोग सो गए। इतने दिन की सफर की थकान में नींद ऐसी आई कि कोजीकोड, कन्नूर और मंगलोर से ट्रेन कब गुजर कुछ पता ही नहीं चला और सुबह के करीब चार बजे से जब नींद खुली तो ट्रेन उडुपी स्टेशन पर खड़ी थी। कुछ ही मिनटों में ट्रेन उडूपी को अलविदा कहती हुई अपने अगले पड़ाव कारवार के लिए चल पड़ी जो उडूपी से 190 किलोमीटर दूर थी। कल शाम होने से पहले जो बरसात आरंभ हुई थी वो अभी तक वैसे ही लगातार हो रही थी और रात होने के कारण हम बरसात का लुत्फ उठाने से वंचित रह गए। उडूपी से ट्रेन के खुलने के बाद हम फिर से सो गए और एक ही बार सुबह होने पर ही उठे और उठते ही जो नजारा दिखा उसे देखकर हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। इस समय हम पश्चिमी घाट से गुजर रहे थे उसमें भी बरसात के मौसम में। हर तरफ दूर दूर तक बस हरियाली ही दिख रही थी। जहां तक नजर जा रही थी बस बरसात और दूर पहाड़ों पर काले बादलों का बसेरा।

15 जून 2017 : करीब 7:30 बजे हमारी ट्रेन कारवार स्टेशन पहुंच गई और बरसात अभी भी जारी थी। कारवार के पास से ही एक नदी गुजरती है जिसका नाम काली नदी है। यह कर्नाटक की एक प्रमुख नदी है। इस नदी का उद्गम स्थल पश्चिमी घाट में है और यह पश्चिम की ओर बहती हुई कारवार के पास अरब सागर में मिल जाती है। यह नदी मुख्यतः उत्तरी कनार जिले से होकर बहती है। इस नदी की सहायक नदियाँ ऊपरी कनेरी और तत्थीहल्ला हैं। कारवार पहुंचते ही सबसे पहले हमने यहां कुछ खाने की तलाश करना शुरू किया तो स्टेशन पर बड़ा-पाव के अलावा और कुछ भी नहीं मिल रहा था। बड़ा-पाव लेकर हम फिर वापस ट्रेन में बैठ गए। यहां से ट्रेन चलने के बाद अगला पड़ाव मडगांव था। अब मडगांव का नाम सुनकर किसका मन नहीं करेगा यहां घूमने का। मडगांव गोआ का ही एक स्टेशन है। ट्रेन से गोआ जाने वाले कुछ लोग तो वास्को-डा-गामा स्टेशन पर उतरते हैं और कुछ लोग मडगांव स्टेशन। 

ऐसे ही हम गोआ के खयालों में खोए हुए चले जा रहे थे। फिर न जाने मेरे मन में क्या सूझा कि मैंने कंचन से ऐसे ही चिढ़ाने के अंदाज में पूछ लिया कि ऐसा करो आप लोग दिल्ली चले जाओ और मैं एक दिन गोआ घूमकर दिल्ली आ जाऊंगा। इस बात को बोलते समय तो हमने यही सोचा कि मुझ पर कुछ कर्ण-भेदी वाण चलाए जाएंगे पर हुआ इसका उल्टा ही। उन्होंने इस बात के लिए हामी भर दी कि ठीक है हम लोग चले जाएंगे और आप यही उतर जाइएगा क्योंकि उनको भी पता था कि परिवार को बीच रास्ते में तो कोई छोड़ ही नहीं सकता, तो हां कहने में भी कोई गलती नहीं है। ऐसे ही बातों बातों में कब मडगांव आ गया कुछ पता ही नहीं चला, घड़ी पर नजर डाली तो 10 बज चुके थे। अब गोआ घूमने तो जा नहीं सकते तो कम से कम ट्रेन के रुकने पर मडगांव स्टेशन पर तो घूमा ही जा सकता है, तो जैसे ही ट्रेन रुकी हम अपना कैमरा लेकर ट्रेन से बाहर आ गए और कुछ फोटो लेते हुए ऐसे ही स्टेशन का मुआयना करने लगे। ट्रेन यहां करीब आधे घंटे खड़ी रही और अपने समय से 15 मिनट की देरी से ठीक 10:30 बजे यहां से आगे के लिए चल पड़ी।

मडगांव से चलने के बाद ट्रेन एक बड़ी सी नदी को पार कर रही थी जिसका नाम मंडोवी नदी था। इसके कई और नाम हैं जैसे मांडवी, मांडोवी, महादायी या महादेई तथा कुछ स्थानों पर गोमती नदी के नाम से भी जाना जाता है। यह कर्नाटक और गोवा से होकर बहती है। यह नदी गोवा राज्य की एक प्रमुख नदी है और इसे गोवा राज्य की जीवन रेखा भी कहा गया है। इसकी कुल लंबाई 77 किलोमीटर है जिसमें से 29 किलोमीटर कर्नाटक और 52 किलोमीटर गोवा से होकर बहती है। इस नदी का उद्गम पश्चिमी घाट के तीस सोतों के एक समूह से होता है जो कर्नाटक के बेलगाम जिले के भीमगढ़ में स्थित हैं। नदी का जलग्रहण क्षेत्र कर्नाटक में 2032 वर्ग किमी और गोवा में 1580 वर्ग किमी का है। दूधसागर प्रपात और वज्रपोहा प्रपात इस नदी के ही भाग हैं।

एक तो पश्चिमी घाट और कोंकण रेलवे का सफर ऐसे ही रोमांचक होता है और यदि उसके उपर से बरसात हो रही हो तो ये ट्रेन का सफर केवल रेल यात्रा न होकर एक तरह से स्वर्ग का ही सफर हो जाता है। ऊंची ऊंची पहाडि़यां, दूर दूर तक हरियाली, न जाने कितनी सुरंगों से होकर गुजरती हुई ट्रेन और इसके बाद यदि इस सफर में बरसात हो रही तो सफर का आनंद कई गुना बढ़ जाता है। पहाड़ों से गिरते झरने इस सफर को और भी रोमांचित बना देते हैं। कभी कोंकण रेलवे के बारे में टीवी और अखबारों में देखा और पढ़ा करता था जो आज खुली आंखों से हमारे सामने था। यदि मैं अपने शब्दों में कहूं तो अब की गई सभी रेल यात्राओं में हमने जितना आनंद नहीं उठाया होगा उससे ज्यादा केवल इसी एक यात्रा में आनंद आया। चलिए अब आगे की बात करते हैं। 

मडगांव के बाद ट्रेन अपने अगले स्टेशन पेरणेम पर कुछ देर रुकी और फिर सिंधुदुर्ग के लिए रवाना हो गई। समूचे रास्ते ऐसे ही लगातार बरसात होती रही। जहां भी ट्रेन कुछ मिनट के लिए रुकती हम झट ट्रेन से बाहर उस बरसात का मजा लेने में व्यस्त हो जाते। यहां एक बात और बताना चाहूंगा वो ये कि इस ट्रेन का टिकट हमने मजबूरी में लिया था, क्योंकि केरला एक्सप्रेस में टिकट मिल नहीं रहा था। जब हमने इस ट्रेन का टिकट लिया था तो हमें ये नहीं पता था कि यही रेल यात्रा मेरे जीवन की सबसे अनोखी और रोमांचक ट्रेन यात्रा होगी, क्योंकि इस ट्रेन से सफर तो पूरे साल में कभी भी किया जा सकता है पर ऐसे दृश्य देखने को हर सफर में नहीं मिलता। कोंकाण रेलवे में दिन का सफर और उसके उपर से बरसात मिलेगी या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं है। ट्रेन चली जा रही थी और हम इन दृश्यों में खोए हुए बस रास्तों को निहारते हुए जा रहे थे और हम कब सिंधुदुर्ग पहुंच गए पता ही नहीं चला। घड़ी देखा तो दोपहर के एक बज चुके थे। मतलब कि हमने लगभग 23 का घंटा सफर हमने पूरा कर लिया था। सिंधुदुर्ग संस्कृत के दो शब्दों सिंधु (समुद्र) और दुर्ग (किला) से मिलकर बना है जिसका अर्थ है समुद्र का किला। इसकी स्थापना शिवाजी ने सन् 1664 में मालवन तालुका के किनारे अरब सागर के एक द्वीप पर किया था। 

सिंधु दुर्ग से ट्रेन के चलने के बाद करीब दो घंटे बाद हम रत्नागिरी पहुंचे। त्रिवेंद्रम से रत्नागिरी तक के 1250 किलोमीटर के सफर को पूरा करने में अब तब 25 घंटे लग चुके थे। रत्नागिरी बाल गंगाधर तिलक की जन्मस्थली है। यह महाराष्ट्र के दक्षिण-पश्चिम भाग में अरब सागर के तट पर स्थित है और यह कोंकण क्षेत्र का ही एक भाग है तथा यह पश्चिम में सहयाद्रि पर्वतमाला से घिरा हुआ है। रत्नागिरि प्रसिद्ध अल्फांसो आम के लिए भी जाना जाता है। कुछ संदर्भां के अनुसार रत्नागिरि का एक संबंध महाभारत काल से भी है। कहा जाता है पांडवों ने अपने वनवास का तेरहवां वर्ष रत्नागिरि के आस पास ही बिताया था। यही वो जगह है जहां कभी म्यांमार के अंतिम राजा थिबू तथा वीर सावरकर को कैद कर रखा गया था।

रत्नागिरी के बाद हमारी ट्रेन का अगला पड़ाव चिपलूण नामक जगह था। चिपलुन एक पिकनिक स्थल के रूप में प्रसिद्ध है। इसके पिकनिक स्थल के रूप में विकसित होने के पीछे भी बहुत ही रोचक बात जुड़ी हुई है। ऐसा था कि 80 के दशक में मुंबई से गोवा जाने के लिए प्रतिदिन उड़ाने संचालित नहीं होती थी। उस समय सप्ताह में एक या दो उड़ाने संचालित होती थी। इसलिए पर्यटकों ने सड़क मार्ग द्वारा गोवा जाना आरंभ कर दिया। लेकिन यह रास्ता काफी लंबा पड़ता था। इसलिए रास्ते में एक ऐसे स्थान की जरुरत महसूस की गई जहां पर्यटक आराम कर सकें। ऐसे स्थान को चुनने के लिए होटल ताज ग्रुप ने समाचारपत्रों में विज्ञापन दिया और पर्यटकों से विभिन्न स्थानों के लिए वोटिंग करने को कहा। वोटिंग में 80 प्रतिशत दर्शकों ने चिपलुन के पक्ष में मतदान किया। इस प्रकार एक पर्यटक स्थल के रूप में चिपलुन का जन्म हुआ।

चिपलून के बाद हमारा अगला पड़ाव पनवेल था। ट्रेन हरी भरी वादियों में बहुत सारे सुरंगों से होकर सरपट चली जा रही थी। पनवेल पहुंचने से पहले हमारे व्हाट्स एप और फेसबुक ग्रुप घुमक्कड़ी दिल से के सदस्यों ने हमारी खोज खबर ली कि हम कहां तक पहुंचे तो हमने रत्नागिरी और पनवेल के बीच होने की बात बता दी और बात यहीं खत्म हो गई। कुछ देर बाद ग्रुप के ही एक और घुमक्कड़ सदस्य प्रतीक गांधी ने हमसे केवल इतना ही पूछा कि आपकी ट्रेन पनवेल के बाद किस रास्ते से जाएगी तो हमने पनवेल के बाद वसई रोड स्टेशन का नाम बता दिया। उसके बाद उनका जवाब आया कि हम आएंगे आपसे मिलने। अब देखने के लिए ये एक बिल्कुल छोटा सा मैसेज था पर इस मैसेज के अंदर जो भाव था उस भाव को या तो केवल भेजने वाला या प्राप्त करने वाला ही समझ सकता था। मैंने कंचन को इस बारे में बताया कि एक घुमक्कड़ मित्र हैं, जो मिलने आएंगे। इस बात से वो भी आश्चर्यचकित हो गई। ट्रेन चलती रही और हम पनवेल पहुंच गए। पनवेल से रात 8:45 पर ट्रेन चली और दो घंटे का सफर पूरा करके ठीक दस बजे हमारी ट्रेन वसई रोड पहुंच गई।

जैसा कि प्रतीक गांधी से पहले ही बात हो गई थी कि वो प्लेटफाॅर्म पर आ चुके हैं। मैं भी ट्रेन के रुकने से पहले ही कंचन को साथ में लेकर ट्रेन के दरवाजे के पास आकर खड़े हो गया। ट्रेन के रुकते ही हम जल्दी से ट्रेन से उतरे। मुझे देखते ही प्रतीक जी ने हाथ उपर उठाकर अपनी उपस्थिति का अहसास कराया। ट्रेन से उतर कर उनके पास पहुंचे तो देखा कि प्रतीक भाई के साथ हम घुमक्कड़ों की बुआ दर्शन कौर धनोय भी मुझसे मिलने आई हुई थीं। अब थोड़ा दर्शन कौर के बारे में। दर्शन कौर जी भी एक बहुत बड़ी घुमक्कड़ हैं और घुमक्कड़ी की दुनिया में उनको बुआ का दर्जा प्राप्त है। पहले तो मैं और कंचन दोनों ने बुआ के पैर छूकर आशीर्वाद लिया उसके बाद प्रतीक भाई से भी गले मिला। फिर कुछ फोटो लेने के बाद कुछ आपस में बातें की गई और इतनी देर में ट्रेन के खुलने का समय हो गया। दुबारा फिर से मिलने की बात कहकर नम आंखों से हमने उन दोनों से विदाई ली तब तक ट्रेन खुल चुकी थी। हम ट्रेन में चढ़े और अपनी सीट पर आकर बैठ गए। जाने से पहले बुआ जी ने मेरे हाथ में लडडु का एक डिब्बा दे दिया था। उस डिब्बे में जितने लडडू थे वो तो खत्म हो गए पर उन लडडुओं में जो मिठास थी तो सदा सदा के लिए मेरे मन में बस गई। जब आभासी दुनिया के कुछ लोग वास्तविक दुनिया में मिलते हैं तो उसका वर्णन करने के लिए किसी के पास कोई शब्द नहीं होता है और हमारी मुलाकात भी ऐसे ही हुई। जिन लोगों के बारे में कुछ पता नहीं था, वो लोग इतने प्यार से इतनी रात में अपने घर से दूर स्टेशन पर मुझसे मिलने आए। वसई रोड से ट्रेन के खुलते ही हम सब अपनी अपनी बर्थ पर सो गए। नींद इतनी गहरी आई कि कब सूरत और बड़ौदा गुजर गया पता ही नहीं चला और उस शहर को चाहे स्टेशन ही सही देखने की तमन्ना भी नींद के साथ ही गुजर गई। 

16 जून 2017 : सुबह में करीब 6 बजे के आसपास जब नींद खुली तो ट्रेन बड़ौदा और रतलाम के बीच थी जो धीरे धीरे अपनी गति से रतलाम की ओर बढ़ रही थी। रात में सोने से पहले सफर में हम जो बरसात और हरियाली देख रहे थे उस चीज का इधर नामोनिशान नहीं था। इसी तरह चलते हुए करीब 7:30 बजे हम रतलाम पहुंच गए। 15 मिनट रुकने के बाद ट्रेन अगले पड़ाव कोटा की तरफ चल पड़ी। जैसे जैसे दिन चढ़ रहा था वैसे वैसे सूर्य की तपिश भी बढ़ती जा रही थी। करीब साढ़े तीन घंटे के सफर के बाद 11:15 बजे हम कोटा पहुंच गए। यहां तक पहुंचते पहुंचते दिल्ली वाली गर्मी का अहसास होने लगा था। कोटा स्टेशन पर ट्रेन के रुकते ही हमने कुछ खाने का सामान लिया और फिर वापस अपने सीट पर बैठ गए। ट्रेन के यहां से खुलते ही हम लोगों ने खाना खाया और फिर कुछ देर आराम करने के लिए बर्थ लगाकर सो गए। कुछ देर बाद नींद खुली तो हम सवाई माधोपुर पहुंच चुके थे। कुछ देर बाद यहां से ट्रेन खुली और अगले पड़ाव भरतपुर के लिए चल पड़ी। जो हरे भरे नजारे हमें कल पूरे दिन देखने के लिए मिला इधर दूर दूर तक उनका कोई नामोनिशान नहीं था। दूर दूर तक बंजर पड़े खेत और पहाड़ और उसके उपर से चिलचिलाती धूप। यही तो अपनी भारत भूमि है जो एक ही दिन में हर तरह के नजारे देखने को मिलते हैं। कहीं गर्मी, कहीं सर्दी, कहीं बर्फ तो कहीं बरसात। ट्रेन चलती रही और ठीक 3 बजे हम भरतपुर पहुंच गए। भरतपुर के बाद हमारा अगला पड़ाव मथुरा था। ट्रेन भरतपुर से खुली और एक घंटे के सफर के बाद हम मथुरा पहुंच गए। कुछ देर मथुरा में रुकने के बाद हमारी ट्रेन अपने गंतव्य स्टेशन हजरत निजामुद्दीन स्टेशन के लिए चल पड़ी और करीब 2 घंटे के सफर के बाद अपने निर्धारित समय से 20 मिनट पहलेे 6 बजे ही हजरत निजामुद्दीन पहुंच गए और यहां से आॅटो लेकर घर की तरफ प्रस्थान कर गए। इस रोमांचक ट्रेन यात्रा में हमने कुल 3007 किलोमीटर का सफर तय किया जिसे पूरा करने में करीब 52 घंटे का समय लगा। सच कहूं तो ये ट्रेन यात्रा हमारे जीवन की सबसे अनूठी और रोमांचक यात्रा रही और मुझे नहीं लगता कि आगे भविष्य में कभी ऐसी रोमांचक ट्रेन यात्रा कर पाउंगा। यदि कर भी लिया तो पूरे परिवार के साथ नहीं होउंगा तो वो आनंद नहीं रह जाएगा जो इस यात्रा में आया। कुछ खट्टे मीठे अनुभव के साथ हमारी 10 दिन की यह यात्रा समाप्त हुई। अब हम आपसे आज्ञा चाहते हैं और जल्दी ही एक दूसरे यात्रा वृत्तांत के साथ सामने आपके सामने आऊंगा। तक तक के लिए आज्ञा दीजिए।

बुधवार, 4 अक्तूबर 2017

कोच्चि के लिए दूसरी फ्लाइट

 एयरपोर्ट की भागमभाग में लगेज भूलना ,घर से दो घण्टे की लम्बी ड्राइव के बाद रायपुर से मुम्बई की पहली फ्लाइट, फिर दो घण्टे मुंबई एयरपोर्ट में इंतजार और कोच्चि के लिए दूसरी फ्लाइट । अंत में कोच्चि एयरपोर्ट से मुन्नार तक 5 घण्टे की लम्बी सड़क यात्रा । सुबह 6 बजे से लगातार सफर से रात 9 बजे होटल पहुँचते थककर चूर हो चुके थे । होटल के रेस्टोरेंट में डिनर ले कमरे में आते ही गहरी नींद में डूब गयी । शाम को देखे चियापारा जलप्रपात के धूम्र छीटें पूरी रात स्वप्न को भीगोते रहे । सुबह 6 बजे खिड़की पर लगा पर्दा खिसकाया । ऊँचाई से नीचे होटल की पार्किंग में रखी ढेरों गाड़ियां दिख रही थी । अरे गाड़ी के पास रिज़वी अभी से क्या कर रहा है ?? बाद में मालूम हुआ कि होटल की पार्किंग में लगी सभी गाड़िया पर्यटकों को घुमाने वाले ड्राइवर के मालिकों की है । 10 दिनों तक केरल के अलग अलग प्राकृतिक स्थानों को घुमाने वाले इन ड्राइवर्स का पूरा जीवन अपने परिवार से दूर गुजर जाता है ।
जिन खतरनाक रास्तों पर साँसे थामे हम सुरक्षित निकल आने की दुआ मांग रहे थे उन खतरों से ये रोज खेलते है । हर बार एक अजनबी परिवार के साथ दिन रात साथ रहते ये बंजारे ड्राइवर्स 10 दिन के लिए उस परिवार के सदस्य हो जाते है। भिन्न भिन्न पड़ाव पर हमपेशा ड्राइवर्स आपस में अक्सर मिलते रहते है । इनकी कार की सीट ही रात का बिस्तर होती है । मैने गाड़ी की डिक्की में रिज़वी का भी एक छोटा सूटकेस देखा था । सभी ड्राइवर्स घुटनों तक मुड़ी सफ़ेद लूँगी पहने अपनी गाड़ियां धोते मलयाली में हँसी मज़ाक कर रहे है । फोन पर चाय ऑर्डर कर कमरे की दूसरी दिशा में एक दरवाज़ा की तरफ़ बढ़ी । रात में थकान से कमरे में आते ही बिस्तर पर धम्म वाली हालत थी । इस दरवाज़े पर लगे पर्दे की वज़ह से ध्यान भी नही गया था। पर्दा हटाकर दरवाज़ा खोला और सचमुच चीख पड़ी ....ओह नो ,ओह्ह नो ..माय गॉड .. खिड़की से सटे पहाड़ पर चाय बागान से आच्छादित मखमली गुदाज़ कालीन बिछी थी ।
रात के अंधेरे में हम इसी रास्ते से आये थे लेकिन अंधेरा होने की वजह से इस अद्भुत नजारे से वंचित रह गए थे । मैंने पहली बार चाय बागान देखे । सफेद उड़ते बादलों से थपकियाँ लेता चाय बागानों वाला पहाड़ । मेरी हाय हाय से पतिदेव की नींद खुल गयी -- ये तुम्हारा अच्छा है खुद की नींद खुल जाए तो दूसरों का सोना हराम कर दो । मैंने लगभग हाथ खींचते हुए कहा -- चाय बागान से आपके लिए चाय आर्डर किया है । बस कमरे में आती ही होगी ।
आपके लिए केरल यात्रा का ये लेख लिखते वक़्त भी लग रहा है कि मैं वापस अपने घर में हूँ और मुन्नार के ऊँचे पहाड़ों पर बादलों की दौड़ा भागी के बीच वो चाय बागान वैसे ही चमचमा रहे होंगे । समझ नही आ रहा है कि जिन्होंने चाय के बागान नही देखे उनकों उस सौंदर्य की सटीक वयाख्या करने वाली शब्दशक्ति कहाँ से लाऊ, फिर भी कोशिश कर रही हूँ । कल्पना करिए कि कच्ची सुबह की भीनी भीनी महक में जहाँ तक नज़र जा रही है वहाँ तक पहाड़ तराश कर उकेरे चाय बागान फैले है । व्यवस्थित, समान ऊँचाई की चाय की घनी झाड़ियों की कंच हरी पत्तियाँ कोहरे में लिपटी धूप की बाट जोह रही है । क्षितिज से गलबहियाँ करते चाय बागान अपने रूप लावण्य से बेखबर अलमस्त दूर तक पसरे हुए है । पहाड़ के ऊबड़खाबड़ , असमतल रूप से रुष्ट किसी ने समतल हरे गलीचे से इन बुलंदियों को ढाँक दिया जैसे । सम्पूर्ण पहाड़ी ढाल पर चाय की सघन झाड़ियों के बीच थोड़े थोड़े अंतराल पर पहाड़ को गोलाई में लपेटती पगडंडियाँ । होटल की बालकनी से देखने पर लगता था कि पहाड़ों पर दूर दूर तक गुदगुदी हरी कालीन बीछी है जिस पर काली पगडंडियों की लकीरें है । चपल , चंचल बादलों के बेपरवाह कारवाँ अथखलियाँ करते घने बागानों में घुसपैठ कर रहे थे । अब तक चाय के लिए कमरे की काल बेल बज चुकी थी । सर्विस बॉय को चाय बालकनी की टेबल पर लगाने के लिए कह पतिदेव को आवाज़ दी -- चीयर्स ..हाट टी सिटींग इनसाइड अ कोल्ड टी गार्डन ।
इस बीच कान्हा जी भी आँख मलते पहुँच गए -- मम्मा आज बाहुबली के गाँव जाएंगे न ?? रिज़वी अंकल ने प्रॉमिस किया है । हम सभी इडली , सांभर , उत्तपम्म , डोसा , नारियल चटनी के नाश्ते के बाद 9 बजे तक तैयार हो चुके थे। कार में बैठते ही रिज़वी ने आज के आनन्द की घोषणा की -- तुमको माल्लुम है, आज हम चलेंगे मुन्नार के राजामलाई इराइकुलम नेशनल पार्क , मट्टुपेट्टी डेम , देवीकुलम नयनामक्कड़ और अटटुकाल वाटरफॉल । हे भगवान ! थोड़ा तो लिहाज़ किया होता इतने कठिन नाम बोलने से पहले । अंकल इन सब जगह में बाहुबली का गाँव कौन सा है ?? रिज़वी ने कान्हा की व्यग्रता देख सांत्वना दी -- चलेंगा न कानन । यू फिकर नाट । हमारी कार चाय बागानों के बीच लहराती सड़कों पर आगे बढ़ रही थी ।अब हम केरल के समुद्री इलाके से बहुत दूर हिल स्टेशन मुन्नार में थे जहाँ नारियल के समुद्रतटीय पेडों का नामो निशान न था । इन पहाड़ों पर घने और बेतरतीब जंगल खत्म हो चुके थे । यहाँ इंसानों के करीने से तराशे चाय बगीचों का एकछत्र आधिपत्य था । सड़क के दोनों तरफ विशाल पेडों पर अफ्रीकन ट्यूलिप के सिंदूरी फूलों के गुच्छे झूम रहे थे । इनके गहरे व चटक नारंगी रंग प्लास्टिक के नकली फूलों का आभास दे रहे थे । यू ही उग आए खरपतवारो पर भी गहरे जामुनी , नीले फूलों की छटा देखने लायक थी । हमारें शहरी गार्डन से अधिक फूल तो सड़क के दोनों तरफ की बेल और पेड़ों पर थे शायद इसलिए ही केरल में भिन्न भिन्न रंग के फूलों की रंगोली बनती है और महिलाएँ भी फूलों का शृंगार करती है ।
. यत्र तत्र फूलों से अटी पड़ी सड़के देख प्रकृति के सौतेले व्यवहार से शिकायत हुई । पटादी के फूलों से पेड़ लदे थे । चाय बागान की गझिन हरियाली में भी गुंजाइश निकाल झाड़ियों के बीच जमीन पर रेंगती नाज़ुक लताओं के जाल में छोटे छोटे पीले और गुलाबी रंग के असंख्य फूल परियों के देश से आये लगते थे । पारिझर के हथेली के आकार के कागज़ के खोमचों जैसे लम्बे गुलाबी फूल । दोपहर तक हम मलयाली नाम वाले "मट्टुपेट्टी डेम" पहुँच चुके थे । डेम कुछ खास आकर्षक नही था ।पर्यटकों को ध्यान में रख बोटिंग आदि की व्यवस्था थी । कान्हा जी को बोटिंग में पैडल मारने में लगने वाला पिछला श्रम याद था -- मम्मा मुझे बोटिंग में नही जाना । रतनपुर में पैडल मार मार के इतना थक गया था कि मन हो रहा था कि झील में कूद कर तैरकर बाहर आ जाऊ ।हम माँ बेटे का ध्यान ठेलों पर बिक रहे ताजा पाइन एप्पल स्लाइस और नारियल पानी पर था -- आओ रिज़वी आप भी पाइन एप्पल खाओ । रिज़वी ने झेंपते हुए मना कर दिया -- नई मैम अभी इधरी रसम-चावल खा लिया है मई (मैं) । आज में (मैं) बहुत परेशान हो गया ।मेरा फोन खराब हो गया ।आपका फोन देते तो थोड़ा फैमिली से बात करने का था । मेरी(मुझे) को फोन बिगड़ने के टेंशन हो गया । मैने पतिदेव को आवाज़ लगाई -- रिज़वी का फोन बिगड़ गया है। जरा देख लीजिए । पतिदेव की लैपटाप और मोबाइल में सिद्धहस्तता पर मुझे विश्वास था । फोन खोलने के 10 मिनिट के भीतर ही उन्होंने फोन ठीक कर उसके हाथ में थमा दिया -- रिज़वी खुशी से उछल पड़ा -- या लिल्हा । ओहो आपने तो मेरा फोन ठीक कर दिया। तुमको माल्लुम है, मेरा पूरा नम्बर था इसमें । मेरे को कितना टेंशन हो गया थी । रिज़वी ने मोबाइल में अपनी खूबसूरत पत्नी और बच्चें की तस्वीरें दिखाई । कान्हा के जितनी ही उम्र का उसका बेटा था । मेरा मन फिर बुझ गया यह जानकर कि दुनिया भर के बेगानों को केरल घुमाने वाला रिज़वी चाहकर भी अपने बच्चों को केरल नही घूमा पाया है । बातों ही बातों में पता चला कि 18 साल में शादी करने के बाद रिज़वी सऊदी अरब चला गया था । केरल में हर चौथा आदमी खाड़ी देशों में छोटी मोटी नौकरी करता है ।
रिज़वी वहाँ 10 साल गाढ़ी मेहनत की कमाई कर 6 साल पहले केरल लौटकर फर्नीचर का व्यवसाय शुरू किया था । अपने सरल स्वभाव की वजह से उधार के ग्राहकों ने धंधा डूबा दिया। पिछले चार साल से अपने मालिक की यह गाड़ी चलाकर परिवार का भरण पोषण कर रहा है । 9 लाख का बैंक लोन भी चुकाना है । सड़क पर नज़र जमाए स्टेरिंग घुमाते रिजवी ने फीकी हँसी के साथ कहा -- आदमी कुछ सोचता है मगर खुदा बन्दों के लिए कुछ और सोच के रखता है ।कहाँ में 6 नौकर रखा था कहाँ आज अपने मालिक का गाड़ी चला रहा हूँ । तुमकों माल्लुम ,में थोड़ा सा चालाक होता था तो आज आगे बढ़ गया होता अब तक । चलती कार में पल भर को उदासी पसर गयी ।मेरे पति ने शांत लहज़े में पूछा -- आगे बढ़ना किसको बोलते है रिज़वी ? बड़े बड़े बिजनेसमैन को गोली मार दी जाती है , कोई घाटे से आत्महत्या कर लेता है , किसी को पारिवारिक कलह है , कोई शरीर से लाचार हो गया है । जिंदगी की सबसे बड़ी सफलता खुश रहने की कला है ।तुम खुश हो या नही ? उलझे भावों में डूबे रिज़वी ने भंवर से उबर आने वाली सच्ची संतुष्टि के साथ कहा -- हाँ सर में खुश तो बहुत रहता हूँ । उदर सऊदी में था तो अपना देश बहोत याद आता था । वो लोग हम इंडियंस को सही ट्रीट नही करता ।इदर पैसा कम है मगर सर अपना जगह अपना होता है । ये घर पे मेरा बीवी और माँ का आपस में थोड़ा किटकिट रहता है बाकी खुदा ने मेरे मन में तसल्ली बहुत दिया है । देखो पइसा ऐसा चीज़ है कल मेरे पास था आज नही कल शायद फिर हो ।
माहौल फिर हल्का हो गया । "अब हम कहाँ जा रहे है ?" इस प्रश्न का उत्तर सिर्फ रिज़वी के पास होता था । रिज़वी के मालिक ने रिज़वी को हमारे हर दिन के शेड्यूल का कई पन्नों वाला एक मोटा पत्रा थमा दिया था । डेम से मायूस लौटते देख रिज़वी ने कहा अब हम लोग बहोत सुन्दर जगह जा रहा है । मैंने थकी आवाज़ में कहा --तुम कही न ले जाओ बस इन पहाड़ों पर ही गाड़ी चलाते रहो। कितने सुन्दर है ये । मौसम में वो आद्रता थी कि पेडों के मोटे तनों पर काई की मोटी मख़मली परत चढ़ गई थी । पहाड़ों में हर थोड़ी दूर पर हरा पानी लिए बड़ी बड़ी झील की तश्तरियाँ रखी थी । शांत झील को घेरे हुए पहाड़ की बुलन्दी को भी चुनौती देते आकाश चूमते यूकेलीप्ट्स के सीधे खड़े पेड़ । वीरान पहाड़ों पर लटकती इक्का दुक्का झोपड़ियां। जाने कौन लोग होंगे जो इन घरों में रहते होंगे ?? वो जो टोकरा दीवार से लटक रहा है क्या उसमें चाय की पत्तियाँ तोड़ी जाती है ??
"मम्मा देखो ये केरल के लोग कितने बुरे है । इतनी सुंदर जगह में भी पहाड़ पर मैंने स्कूल देखा था ।"कार के भीतर ठहाकों की वजह कान्हा की समझ से परे था । घने जंगलों के तिलस्म में डूबे पहाड़ , खुले चाय बागानों की चादरों वाले बीछे पहाड़, काली चट्टानों पर रिसते झरनों वाले वनस्पतिरहित पथरीले पहाड़ , गोल्फ के हरे मैदान जैसे हाथियों की चारागाह वाले पहाड़ , लबरेज़ झील को अंजुली में सहेजे पहाड़ । लगातार रूप बदलते पहाड़ किसी मायावी नायिका से लग रहे थे |( शेष यात्रा कल)

mereth highway scame

Image may contain: text

बैजनाथ महादेव, पालमपुर (हिमाचल प्रदेश)


बैजनाथ महादेव, पालमपुर (हिमाचल प्रदेश)
कैसे जाएँ : बैजनाथ जाने के लिए पहले तो आपको पठानकोट जाना होगा। पठानकोट से बैजनाथ के लिए डायरेक्ट बसें है और आप चाहे तो पठानकोट से काँगड़ा और उसके बाद काँगड़ा से बैजनाथ जा सकते हैं। अगर आप पूरे रास्ते ट्रेन से ही जाना चाहते हैं तो पठानकोट से जोगिन्दर नगर छोटी लाइन (काँगड़ा वैली ट्रेन) से जा सकते है। यहाँ बैजनाथ मंदिर नाम से ही स्टेशन है जो मंदिर से 1 किलोमीटर दूर है, यदि आप यहाँ उतरते है तो आपको ये 1 किलोमीटर का सफर चढ़ाई करके पूरी करनी होगी, तो इससे अच्छा आप पपरोला उतर जाएँ जाएँ तो मंदिर से 3 किलोमीटर पहले है। यहाँ से आप बस से चले जाये तो बिलकुल मंदिर के पास में ही उतारेगी।
कहाँ ठहरें : यहाँ ठहरने के लिए प्राइवेट गेस्ट हाउस और होटल तो है ही और इसके अलावा यहाँ मंदिर न्यास प्राधिकरण द्वारा संचालित गेस्ट हाउस है जो बहुत ही किफायती और अच्छी है।

बुधवार, 27 सितंबर 2017

सौर सुजला योजना में अब एक से पांच हार्स का पंप लगा सकते हैं किसान




सौर सुजला योजना में अब एक से पांच हार्स का पंप लगा सकते हैं किसान

सौर सुजला योजना के तहत स्थापित सोलर पंप किसानों की किस्मत को बदलने में अहम भूमिका निभाने लगे है। सिंचाई के लिए मौसम एवं प्रकृति पर निर्भर रहने वाले किसानों के लिए बिना प्रदूषण, आवाज और विद्युत शुल्क का व्यय किए ये पंप सौर उर्जा के माध्यम से किसानों के सहायक बन गए है। पिछले वर्ष पूरे प्रदेश में संख्या दृष्टि से दूसरे स्थान पर महासमुंद जिले के लगभग एक हजार किसानों ने प्रधानमंत्री सौर सुजला योजना के अनुदान का लाभ लेते हुए इसे अपने खेतों में लगाया है। इस वर्ष योजना में आंशिक परिर्वतन किया गया है, और अब किसान 1 एच.पी. से लेकर 5 एच.पी. के पंप अनुदान के माध्यम से लगा सकते है। यह अनुदान अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग के साथ-साथ समान्य वर्ग के किसानों को भी मिलता है।
क्रेडा के सहायक यंत्री श्री संदीप कुमार बंजारे ने बताया कि इस योजना के तहत आवेदन लेने की कार्रवाई की जा रही है। आवेदन पत्र कृषि या क्रेडा विभाग के कार्यालय में दिया जा सकता है। आवेदन पत्र के साथ निवास प्रमाण पत्र, आधार कार्ड, जाति प्रमाण पत्र, जमीन में लगने वाले भूमि फोटो एवं खसरा और रकबा का सत्यापित नक्शा, बैंक पासबुक, स्थापना स्थल के फोटोग्राफ, हितग्राही की दो फोटो और फार्म में लगने वाले प्रोसेसिंग शुल्क की राशि जमा करनी होगी। उन्होंने बताया कि इस योजना के तहत पात्रता ऐसे किसानों को होगी, जिनके पंप में स्थायी विद्युत कनेक्शन नहीं हैं, एक सकल नलकूप से दूसरे नलकूप की दूरी 300 मीटर है, समीप के नदी और नालों में कम से कम 3 फीट पानी होना चाहिए। सोलर पंप कुएं में भी स्थापित किया जा सकता है।
उन्होंने बताया कि एक एचपी का सौर सुजला पंप लगाने के लिए 1200 रूपए का प्रोसेसिंग शुल्क लिया जाता है। पंप के लिए अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के किसानों द्वारा 3500 रूपए, अन्य पिछड़ा वर्ग के किसानों को 6 हजार रूपए और सामान्य वर्ग के किसानों को 14 हजार अंशदान दिया जाता है। शेष राशि अनुदान के रूप में शासन द्वारा दी जाती है। इसी प्रकार 2 एच.पी. पंप का प्रोसेसिंग शुल्क 1800 रूपए है, जिसमें अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति द्वारा 5 हजार रूपए, अन्य पिछड़ा वर्ग द्वारा 9 हजार और सामान्य वर्ग के किसानों द्वारा 16 हजार अंशदान दिया जाता है। शेष राशि शासन द्वारा अनुदान के रूप में दी जाती है। 3 एचपी पंप का  प्रोसेसिंग शुल्क 3हजार रूपए हैं, जिसमें अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति द्वारा 7 हजार रूपए, अन्य पिछड़ा वर्ग द्वारा 12 हजार और सामान्य वर्ग के हितग्राही द्वारा 18 हजार रूपए का अंशदान दिया जाता है। पांच एचपी पंप का प्रोसेसिंग शुल्क 4800 रूपए हैं। इसमें अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति द्वारा 10 हजार रूपए, अन्य पिछड़ा वर्ग द्वारा 15 हजार और सामान्य वर्ग के किसानों द्वारा 20 हजार अंशदान दिया जाता है।

मंगलवार, 26 सितंबर 2017

ओरछा-राजा राम का मंदिर - राम राम राजा राम राम...

ओरछा-राजा राम का मंदिर - राम राम राजा राम राम...
देश में राजा राम चंद्र का एक ऐसा मंदिर है जहां राम की पूजा भगवान के तौर पर नहीं बल्कि राजा के रूप में की जाती है। अब राजा राम हैं तो उन्हें सिपाही सलामी भी देते हैं। हम बात कर रहे हैं मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले में स्थित ओरछा के राजा राम मंदिर की। यहां राजा राम को सूर्योदय के पूर्व और सूर्यास्त के पश्चात सलामी दी जाती है। इस सलामी के लिए मध्य प्रदेश पुलिस के जवान तैनात होते हैं।
राजा राम का मंदिर देखने में किसी राज महल सा प्रतीत होता है। मंदिर की वास्तुकला बुंदेला स्थापत्य का सुंदर नमूना नजर आता है। कहा जाता है कि राजा राम की मूर्ति स्थापना के लिए चतुर्भुज मंदिर का निर्माण कराया जा रहा था। पर मंदिर बनने से पहले इसे कुछ समय के लिए महल में स्थापित किया गया। लेकिन मंदिर बनने के बाद कोई भी मूर्ति को उसके स्थान से हिला नहीं पाया। इसे ईश्वर का चमत्कार मानते हुए महल को ही मंदिर का रूप दे दिया गया और इसका नाम रखा गया राम राजा मंदिर।
आज इस महल के चारों ओर शहर बसा है।
हर रोज आते हैं राजा राम यहां पर
कहा जाता है कि यहां राजा राम हर रोज अयोध्या से अदृश्य रूप में आते हैं। ओरछा शहर के मुख्य चौराहा के एक तरफ राजा राम का मंदिर है तो दूसरी तरफ ओरछा का प्रसिद्ध किला।
मंदिर में राजा राम, लक्ष्मण और माता जानकी की मूर्तियां स्थापित हैं। इनका श्रंगार अद्भुत होता है। मंदिर का प्रांगण काफी विशाल है। चूंकि ये राजा का मंदिर है इसलिए इसके खुलने और बंद होने का समय भी तय है। सुबह में मंदिर आठ बजे से साढ़े दस बजे तक आम लोगों के दर्शन के लिए खुलता है। इसके बाद शाम को मंदिर आठ बजे दुबारा खुलता है।
रात को साढ़े दस बजे राजा शयन के लिए चले जाते हैं। मंदिर में प्रातःकालीन और सांयकालीन आरती होती है जिसे आप देख सकते हैं। देश में अयोध्या के कनक मंदिर के बाद ये राम का दूसरा भव्य मंदिर है।
मंदिर परिसर में फोटोग्राफी निषेध है। मंदिर का प्रबंधन मध्य प्रदेश शासन के हवाले है। पर लोकतांत्रिक सरकार भी ओरछा में राजाराम की हूकुमत को सलाम करती है। ओरछा शहर को कई तरह के करों से छूट मिली हुई है। यहां पर लोग राजा राम के डर से रिश्वत नहीं लेते और भ्रष्टाचार करने से डरते हैं।
महारानी लाई थीं राजा राम को – कहा जाता है कि संवत 1600 में तत्कालीन बुंदेला शासक महाराजा मधुकर शाह की पत्नी महारानी कुअंरि गणेश राजा राम को अयोध्या से ओरछा लाई थीं। एक दिन ओरछा नरेश मधुकरशाह ने अपनी पत्नी गणेशकुंवरि से कृष्ण उपासना के इरादे से वृंदावन चलने को कहा।
लेकिन रानी तो राम की भक्त थीं। उन्होंने वृंदावन जाने से मना कर दिया। गुस्से में आकर राजा ने उनसे यह कहा कि तुम इतनी राम भक्त हो तो जाकर अपने राम को ओरछा ले आओ। रानी ने अयोध्या पहुंचकर सरयू नदी के किनारे लक्ष्मण किले के पास अपनी कुटी बनाकर साधना आरंभ की।
इन्हीं दिनों संत शिरोमणि तुलसीदास भी अयोध्या में साधना रत थे। संत से आशीर्वाद पाकर रानी की आराधना और दृढ़ होती गई। लेकिन रानी को कई महीनों तक राजा राम के दर्शन नहीं हुए। वह निराश होकर अपने प्राण त्यागने सरयू की मझधार में कूद पड़ी। यहीं जल की अतल गहराइयों में उन्हें राजा राम के दर्शन हुए।
रानी ने उनसे ओरछा चलने का आग्रह किया। उस समय मर्यादा पुरुशोत्तम श्रीराम ने शर्त रखी थी कि वे ओरछा तभी जाएंगे, जब इलाके में उन्हीं की सत्ता रहे और राजशाही पूरी तरह से खत्म हो जाए। तब महाराजा शाह ने ओरछा में ‘रामराज' की स्थापना की थी, जो आज भी कायम है।
मंदिर के प्रसाद में पान का बीड़ा – राजा राम मंदिर में प्रशासन की ओर से प्रसाद का काउंटर है। यहां 20 रुपये का प्रसाद मिलता है। प्रसाद में लड्डू और पान का बीड़ा दिया जाता है। हालांकि मंदिर के बाहर भी प्रसाद की तमाम दुकाने हैं जहां से आप फूल प्रसाद आदि लेकर मंदिर में जा सकते हैं। मंदिर के बाहर जूते रखने के लिए निःशुल्क काउंटर बना है। राजा राम मंदिर में रामनवमी बड़ा त्योहार होता है।
बेल्ट लगाकर नहीं जा सकते- आप राजा राम के मंदिर के अंदर बेल्ट लगाकर नहीं जा सकते हैं। इसके पीछे बड़ा रोचक तर्क ये दिया जाता है कि राजा के दरबार में कमर कस कर नहीं जाया जा सकता है। यहां सिर्फ राजा राम की सेवा में तैनात सिपाही ही कमरबंद लगा सकते हैं। आप जूता घर में अपना बेल्ट जमा करके फिर मंदिर में प्रवेश कर सकते हैं।
राजा राम के मंदिर की मूर्तियों के बारे में कहा जाता है कि ये अयोध्या से लाई गई हैं। महारानी की कहानी के मुताबिक उनकी तपस्या के कारण राजा राम अयोध्या से ओरछा चले आए थे। पर स्थानीय बुद्धिजीवी मानते हैं कि बाबर के आदेश पर अयोध्या में राम मंदिर तोड़े जाने के बाद अयोध्या के बाकी मंदिरों की सुरक्षा का सवाल उठने लगा। ऐसी स्थित में कई मंदिरों की बेशकीमती मूर्तियों को ओरछा में लाकर सुरक्षित किया गया।
ऐसा कहा जाता है कि ओरछा के ज्यादातर मंदिरों में जो मूर्तियां हैं वे अयोध्या से लाई गई हैं

शनिवार, 23 सितंबर 2017

राजगीर

राजगीर
तापमान: गर्मियों अधिकतम 40 °C, न्यूनतम 20 °C तथा जाड़ों में अधिकतम 28 °C, न्यूनतम 6 °C
वर्षा: 1,860 मिमी (मध्य-जून से मध्य-सितंबर)
सबसे उपयुक्त: अक्टूबर से अप्रैल
दर्शनीय स्थल
गृद्धकूट पर्वत : इस पर्वत पर बुद्ध ने कई महत्वपूर्ण उपदेश दिये थे। जापान के बुद्ध संघ ने इसकी चोटी पर एक विशाल “शान्ति स्तूप” का निर्माण करवाया है जो आजकल पर्यटकों के आकर्षण का मूख्य केन्द्र है। स्तूप के चारों कोणों पर बुद्ध की चार प्रतिमाएं स्थापित हैं। स्तूप तक पहुंचने के लिए पहले पैदल चढ़ाई करनी पड़ती थी पर बाद में एक “रज्जू मार्ग” भी बनाया गया है जो यात्रा को और भी रोमांचक बना देता है।
वेणुवन : बाँसों के इस रमणीक वन में बसे “वेणुवन विहार” को बिम्बिसार ने भगवान बुद्ध के रहने के लिए बनवाया था।
गर्म जल के झरने : वैभव पर्वत की सीढ़ियों पर मंदिरों के बीच गर्म जल के कई झरने (सप्तधाराएं) हैं जहां सप्तकर्णी गुफाओं से जल आता है। इन झरनों के पानी में कई चिकित्सकीय गुण होने के प्रमाण मिले हैं। पुरुषों और महिलाओं के नहाने के लिए 22 कुन्ड बनाए गये हैं। इनमें “ब्रह्मकुन्ड” का पानी सबसे गर्म (४५ डिग्री से.) होता है।
स्वर्ण भंडार : यह स्थान प्राचीन काल में जरासंध का सोने का खजाना था। कहा जाता है कि अब भी इस पर्वत की गुफ़ा के अन्दर अतुल मात्रा में सोना छुपा है और पत्थर के दरवाजे पर उसे खोलने का रहस्य भी किसी गुप्त भाषा में खुदा हुआ है। वह किसी और भाषा में नहीं बल्कि शंख लिपि है और वह लिपि बिंदुसार के शासन काल में चला करती थी।
जैन मंदिर : पहाड़ों की कंदराओं के बीच बने 26 जैन मंदिरों को आप दूर से देख सकते हैं पर वहां पहुंचने का मार्ग अत्यंत दुर्गम है। लेकिन अगर कोई प्रशिक्षित गाइड साथ में हो तो यह एक यादगार और बहुत रोमांचक यात्रा साबित हो सकती है। जैन मतावलंबियो में विपुलाचल, सोनागिरि, रत्नागिरि, उदयगिरि, वैभारगिरि यह पांच पहाड़ियाँ प्रसिद्ध हैं। जैन मान्यताओं के अनुसार इन पर 23 तीर्थंकरों का समवशरण आया था तथा कई मुनि मोक्ष भी गए हैं।
राजगीर का मलमास मेला : राजगीर की पहचान मेलों के नगर के रूप में भी है। इनमें सबसे प्रसिद्ध मकर और मलमास मेले के हैं। शास्त्रों में मलमास तेरहवें मास के रूप में वर्णित है। सनातन मत की ज्योतिषीय गणना के अनुसार तीन वर्ष में एक वर्ष 366 दिन का होता है। धार्मिक मान्यता है कि इस अतिरिक्त एक महीने को मलमास या अतिरिक्त मास कहा जाता है।
ऐतरेय बह्मण के अनुसार यह मास अपवित्र माना गया है और अग्नि पुराण के अनुसार इस अवधि में मूर्ति पूजा–प्रतिष्ठा, यज्ञदान, व्रत, वेदपाठ, उपनयन, नामकरण आदि वर्जित है। लेकिन इस अवधि में राजगीर सर्वाधिक पवित्र माना जाता है। अग्नि पुराण एवं वायु पुराण आदि के अनुसार इस मलमास अवधि में सभी देवी देवता यहां आकर वास करते हैं। राजगीर के मुख्य ब्रह्मकुंड के बारे में पौराणिक मान्यता है कि इसे ब्रह्माजी ने प्रकट किया था और मलमास में इस कुंड में स्नान का विशेष फल है।
मलमास मेले का ग्रामीण स्वरूप : राजगीर के मलमास मेले को नालंदा ही नहीं बल्कि आसपास के जिलों में आयोजित मेलों मे सबसे बड़ा कहा जा सकता है। इस मेले का लोग पूरे तीन साल इंतजार करते हैं। कुछ साल पहले तक यह मेला ठेठ देहाती हुआ करता था पर अब मेले में तीर्थयात्रियों के मनोरंजन के लिए तरह-तरह के झूले, सर्कस, आदि भी लगे होते हैं। युवाओं की सबसे ज्यादा भीड़ थियेटर में होती है जहां नर्तकियाँ अपनी मनमोहक अदाओं से दर्शकों का मनोरंजन करती हैं।
जीवकर्म : बुद्ध के समय प्रसिद्ध वैध जीवक राजगीर से थे। उन्होंने बुद्ध के नाम एक आश्रम समर्पित किया जिसे कहा जाता है।
तपोधर्म : तपोधर्म आश्रम गर्म चश्मों के स्थान पर स्थित है। आज वहाँ एक हिन्दू मन्दिर का निर्माण किया किया गया है जिसे लक्ष्मी नारायण मन्दिर का नाम दिया गया है। पूर्वकाल में तपोधर्म के स्थल पर एक बौद्ध आश्रम और गर्म चश्मे थे। राजा बिम्बिसार यहाँ पर कभी-कभार स्नान किया करते थे।
सप्तपर्णी गुफा : सप्तपर्णी गुफा के स्थल पर पहला बौद्ध परिषद का गठन हुआ था जिसका नेतृत्व महाकस्सप ने किया था। बुद्ध भी कभी-कभार वहाँ रहे थे, और यह अतिथि संन्यासियों के ठहरने के काम में आता था।
जरासंध का अखाडा़ : हिन्दू मान्यता के अनुसार महान परन्तु दुष्ट योद्धा जिसके बार-बार मथुरा पर हमले से श्री कृष्ण तंग आकर मथुरा-वासियों को द्वारका भेजना पड़ा, इसी स्थान पर हर दिन सैन्य कलाओं का अभ्यास करता था।
लक्ष्मी नारायण मंदिर : गुलाबी रंग वाली हिन्दू लक्ष्मी नारायण मन्दिर अपने दामन में प्रचीन गर्म चश्मे समाए हुए है। यह मन्दिर अपने नाम के अनुसार विष्णु भगवान और उनकी पत्नी लक्ष्मी को समर्पित है।
वास्तविक रूप में जल में एक डुपकी ही गर्म चश्मे को अनुभव करने का स्रोत था, परन्तु अब एक उच्च स्तरीय चश्मे को काम में लाया गया है जो कई आधूनिक पाइपों से होकर आता है जो एक हॉल की दीवारों से जुड़े हैं, जहाँ लोग बैठकर अपने ऊपर से जल के जाने का आनंद ले सकते हैं।
अन्य स्थान : अतिरिक्त पुरातत्व स्थलों में शामिल हैं:
1. कर्णदा टैंक जहा बुद्ध स्नान करते थे।
2. मनियार मठ जिसका इतिहास पहली शताब्दी का है।
3. मराका कुक्षी जहाँ अजन्मित अजातशत्रु को पिता की मृत्यु का कारण बनने का श्राप मिला
4. रणभूमि जहाँ भीम और जरासंध महाभारत की एक युद्ध लड़े थे
5. स्वर्णभण्डार गुफा
6. विश्वशांति स्तूप
7. एक पुराने दुर्ग के खण्डहर
8. 2500 साल पुरानी दीवारें
बिम्बिसार कारागार : घाटी के बीच एक गोलाईदार ढाँचे के खण्डहर हैं जिसके हर कोने में एक बुर्ज है। बिम्बिसार को उसके बेटे अजतशत्रु ने बन्दी बनाया था। इसके बावजूद वह गृधाकुट और बुद्ध को खिड़की से देख सकते थे।
कैसे जाएँ :
वायुमार्ग: निकटतम हवाई-अड्डा पटना (107 किमी).
रेलमार्ग: पटना, गया , वाराणसी, हावड़ा एवं दिल्ली से सीधी रेल सेवा।
सड़क द्वारा: पटना, गया, दिल्ली एवं कोलकाता से सीधा संपर्क।
बिहार राज्य पर्यटन विकास निगम पटना स्थित अपने कार्यालय से नालंदा एवं राजगीर के लिए वातानुकूलित टूरीस्ट बस एवं टैक्सी सेवा भी उपलब्ध करवाता है।

सोमवार, 4 सितंबर 2017

Auli in 1st week of december,

Hello Friends,

I am planning to go Auli in 1st week of december,can you please tell me is there any chance to see the snowfall at that time of period.

Please see my mentioned below itinerary and suggest me if i miss any thing.

Day 1 - Delhi to Haridwar
visit some temples of haridwar and overnight stay at Haridwar.

Day 2 - Leave haridwar early morning (5:00 am) and reach joshimath in the evening.
Overnight stay at Joshimath
Question: I will go by cab from haridwar to joshimath, how much time it will take?
Question: what are the places to see in joshimath?

Day 3 - Joshimath to Mana village
Overnight stay at Joshimath
Question: what are the places to see in mana village?

Day 4 - Joshimat to Auli
Overnight stay at Auli

Day 5 - Auli - Haridwar - Delhi

Thanks

शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

तिरुपति बालाजी (वेंकटेश्ववर भगवान, तिरुमला) दर्शन

तिरुपति बालाजी (वेंकटेश्ववर भगवान, तिरुमला) दर्शन

तिरुपति बालाजी (वेंकटेश्ववर भगवान, तिरुमला) दर्शन





एक बहुत लम्बे इंतज़ार और लम्बे सफर के बाद हम आज उस जगह पर पहुंचे हुए थे, जहाँ हर दिन लाख लोग अपनी अपनी मुरादें लेकर आते रहते हैं लेकिन मैं यहाँ कोई मुराद या मन्नत लेकर नहीं आया था, मैं तो बस उस दिव्य जगह के दिव्य दर्शन के लिए यहाँ आया था। हर दिन सोचा करता था कि आखिर ऐसा क्या है उस जगह पर जहाँ हर दिन इतने सारे लोग जाते हैं और आज हम भी उसी जगह पर पहुंचे हुए हैं। शहरों की भाग दौड़ वाली जिंदगी से दूर यहाँ एक अलग ही शांति थी और इतने सारे लोग एक दूसरे से अनजान होते हुए भी अनजान नहीं दिख रहे थे। यहाँ एक साथ पूरे देश से आये हुए लोग देखे जा सकते हैं। सबकी अलग भाषा, अलग रहन सहन, अलग खान पान होते हुए भी यहाँ सब एक ही रंग में रंगे हुए नज़र आ रहे थे और वो रंग था भक्ति का। इस भीड़ में कुछ दूसरे देश के लोग भी दिखाई दे जाते थे और वो भी यहाँ आकर भक्ति के रंग में सराबोर थे। यहाँ आया हुआ हर व्यक्ति देश, राज्य, जाति, वर्ग, गरीब, अमीर को भूल कर बस भक्ति में लीन अपनी ही धुन में चला जा रहा था। यहाँ की स्थिति को देखकर मन में बस एक ही ख्याल आ रहा था कि काश हर जगह बस ऐसी ही शांति हो, जहाँ कोई किसी के आगे या पीछे न होकर बस एक साथ चल रहे हों। 

आइये अब आज की अपनी बात करते हैं। कल रात सोने से पहले हमने मोबाइल में सुबह 3 बजे का अलार्म लगाया था और 3 बजते ही अलार्म बजना आरंभ हो गया। अलार्म के साथ मेरी नींद भी खुल गई। सफर की थकान के कारण बेड से उठने का मन तो बिलकुल नहीं हो रहा था।  मैंने अलार्म बंद किया और फिर से सोने की कोशिश करने लगे। दुबारा नींद भी नहीं आ पाई थी कि 5 मिनट बाद दूसरे मोबाइल में भी अलार्म बजने लगा। अब तो दोनों मोबाइल ने अपने हाजिरी लगा दी तो उठना ही था। खैर जैसे तैसे उठे और सबको जगा कर मैं नहाने चला गया। पानी बिल्कुल ठंडा था, जो कि नहाने लायक नहीं था। खैर मैं नहा तो ठन्डे पानी से भी लेता पर एक लम्बे सफर पर निकलने के कारण ठन्डे पानी से नहीं नहाया कि कहीं तबियत खराब हो गई तो फिर घुमक्कड़ी का आनंद ही जाता रहेगा। अब नहाने के लिए गरम पानी की जरूरत थी जो बाहर लगे गीज़र से पूरी हो गई। अब हम जल्दी से नहा कर तैयार हुए। सबको तैयार होने के लिए कहकर मैं ये देखने के लिए बाहर निकल गया कि दर्शन के समय कैसे और किस रास्ते से जाया जाये।




अभी सुबह के 4 बजे थे और बाहर कोई मिल नहीं रहा था जिससे कि कुछ पूछा जाये।  करीब एक घंटे से ज्यादा सड़क पर इधर उधर भटकने के बाद मैं वापस कमरे पर आ गया। यहाँ आते हुए मैंने कल्याण कट्टा में लोगो को अपने केश दान करते (मुंडन कराते) हुए देखा तो मन में खयाल आया कि क्यों न हम भी मुंडन करवा ही लें। मेरे इस प्रस्ताव का पत्नी और माताजी ने समर्थन कर दिया। कल्याण कट्टा (जहाँ मुंडन होता है) गेस्ट हाउस (कल्याण चौल्ट्री) के सामने ही था। हम सब लोग मुंडन करवाने चले गए। यहाँ जाते ही हमें एक स्लिप और आधा ब्लेड दिया गया। स्लिप पर सीट की संख्या लिखी हुई थी और वहीं पर आपका मुंडन होगा जो संख्या स्लिप पर लिखी हुई थी। अंदर गया तो कई बड़े बड़े हॉल में मुंडन कर्मचारी बैठे हुए थे और मुंडन करवाने वाले की भीड़ लगी हुई थी। हम लोगों की बारी आने पर हम सबने भी मुंडन करवाया और उसके बाद गेस्ट हाउस आ गए। एक बार तो पहले नहा ही चुके थे और मुंडन करवाने के बाद फिर से नहाने की जरूरत थी तो सबने फिर से नहाया।

मुझे यहाँ 131 और 133 नम्बर का कमरा मिला था। हम मंदिर जाने के लिए निकलने ही वाले थे कि इसी दौरान 132 नम्बर कमरे में ठहरे हुए कुछ लोग आये तो पूछने पर पता चला कि वो लोग दर्शन करके आ रहे हैं और 16 घंटे के बाद उन लोगों ने दर्शन किया था। खैर मैं पहले ही 300 रुपये वाला दर्शन के लिए ऑनलाइन ही बुकिंग करवा रखा था जिसकी बुकिंग तिरुमला तिरुपति देवसंस्थानम की वेबसाइट https://ttdsevaonline.com पर होती है और साथ में 2 लडडू भी मिलते हैं। दर्शन की बुकिंग हर घंटे के हिसाब से होती है और मेरा 10 बजे के दर्शन के लिए बुकिंग थी और जिसके लिए 2 घंटे पहले ATC कार पार्किंग एरिया में रिपोर्ट करनी थी। अब तक 6:15 बज चुके थे और हम लोग मंदिर दर्शन के लिए गेस्ट हाउस से निकल गए तो पता चला कि 300 रूपये वाले दर्शन के लिए धोती जरूरी है। खैर हमने 3 धोतियां खरीदी और फिर कमरे में आकर धोती पहन कर फिर से मंदिर के लिए निकल पड़े। यहाँ पुरुषों के लिए धोती अनिवार्य है तो महिलाओं के लिए साड़ी या सलवार-कुरता अनिवार्य है। पश्चिमी सभ्यता के ड्रेस यहाँ निषेध है। मंदिर के पास जाकर कैमरा, मोबाइल, जूते-चप्पल रखने की मुसीबत से बचने के लिए हमने सब कुछ कमरे में ही छोड़ दिया और साथ में हर उस चीज़ को कमरे पर ही रहने दिया जो मंदिर में ले जाना निषेध था। बस दर्शन पर्ची और पहचान पत्र साथ में रखकर दर्शन के लिए निकले। पूछते पूछते हम 7:30 बजे ATC कार पार्किंग एरिया पहुँच गए।

ठीक 8 बजे अंदर जाने के लिए दरवाजा खोला गया और पर्ची देख देखकर सबको अंदर जाने दिया गया। कुछ आगे बढ़ने पर पर्ची के साथ साथ पहचान पत्र की जाँच करने के बाद ही आगे जाने दिया जा रहा था। कुछ आगे बढ़ने पर हमने देखा कि बड़े बड़े कई हॉल है जहाँ बैठ कर लोग दर्शन के लिए इंतजार कर रहे हैं। हर हॉल में करीब करीब 500-600 लोग थे और यहाँ सबके लिए खाने-पीने की पूरी व्यवस्था थी। जिस क्रम में हॉल में लोग बैठते है उसी क्रम के अनुसार उनको दर्शन के लिए भेजा जाता है। एक हॉल में बैठे लोगों को जब दर्शन के लिए भेजा जाता है तो उस खाली हुए हॉल में नए लोगों को बैठा दिया जाता है और यही क्रम चलता रहता है और 10-11 घंटे के इंतज़ार के बाद दर्शन की बारी आती है। मेरा 300 रुपये वाला बुकिंग था इसलिए मुझे कहीं इंतज़ार नहीं करना था और हम लोग आगे बढ़ते रहे आगे जाते जाते रास्ता सँकरा होता जा रहा था। वैसे ही सँकरे रास्ते से आगे बढे और कुछ आगे बढ़ने पर तिरुपति से तिरुमला तक पैदल आने वाले श्रद्धालुओं को इसी लाइन में मिला दिया गया तो भीड़ और ज्यादा हो गई। अब कुछ और आगे बढ़े तो यहाँ पर सुदर्शन लाइन (हॉल में बैठे लोगों)  को भी इसी लाइन में मिला दिया गया। अब इसका मतलब ये साफ है कि आप चाहे 1000 रूपये वाली पर्ची लो, या 300 वाली पर्ची या फिर चाहे फ्री वाली लाइन हो या तिरुपति से तिरुमला तक पैदल आये हो दर्शन सबको एक साथ ही करनी है बस फर्क ये है कि आपको घंटो तक इंतज़ार नहीं करना होता है और भीड़ में ज्यादा देर तक लाइन में रहना नहीं पड़ता है।

चलिए अब आगे बढ़ते हैं। थोड़ा और आगे बढ़ने पर हम मंदिर के मुख्य दरवाजे पर पहुंच गए। यहाँ एक ही दरवाजे से अंदर जाने और बाहर आने की प्रक्रिया चलती है। बाहर वाले को रोककर अंदर के लोगों को निकलने के बाद फिर अंदर जाने दिया जाता है। खैर लो जी हम मंदिर के अंदर भी पहुँच गए और धीरे धीरे गर्भ गृह वाले भवन में भी पहुँच गए, धीरे धीरे दर्शन के लिए लाइन आगे बढ़ रही थी और भगवान वेंकटेश्वर स्वामी के दर्शन कर रही थी। हमारी भी बारी आई और हमने भी भगवान्  वेंकटेश के दर्शन किये। करीब 12-15 फ़ीट की दूरी से भगवान्  वेंकटेश के दर्शन होते हैं और बस कुछ ही पल उनके सामने आप रुक सकते हैं, और ये कुछ ही पल बस सेकंड भर ही होता है और इस सेकंड भर में ही ऐसा प्रतीत होता है कि मैं मैं नहीं हूँ, बस सब कुछ भूलकर अपने आपको भगवान को समर्पित कर चुके हैं। हमारे दर्शन का समय 10 बजे का था लेकिन 9:30 बजे ही हमने दर्शन कर लिया।  दर्शन के बाद हम करीब 30 मिनट मंदिर प्रांगण में ही बैठे रहे। अब तक अंदर इतनी भीड़ हो गई थी कि मुझे जिसकी उम्मीद नहीं थी। भीड़ इतनी थी कि मंदिर से निकलने में करीब 30 मिनट का समय लगा।




मंदिर से निकलकर हम प्रसाद के लाइन में लग गए जहाँ सबको दही वाली खीर दी जा रही थी। प्रसाद ग्रहण करने के बाद हम लडडू लेने गए और लिए अपनी दर्शन पर्ची दिखाकर 6 लोगों के 12 लडडू लिया। ऑनलाइन दर्शन करने वाले लोगों को लडडू केवल 13 नंबर के काउंटर पर दिया जाता है और पैदल आने वाले और सुदर्शन लाइन से दर्शन करने वाले लोग किसी भी काउंटर से लडडू ले सकते हैं। वैसे एक बात तो है यहाँ के लडडू का कोई जवाब नहीं। लडडू लेने के बाद हम मंदिर परिसर और चीज़ो को देखने बाद करीब 11 बजे हम मेगा किचन की तरफ बढ़ गए। यहाँ एक साथ एक बार में हज़ार से ज्यादा लोग भोजन करते हैं। इतने लोगों के एक साथ भोजन करने की प्रक्रिया यहाँ पूरे दिन चलती है। एक तरफ से लोग आते है खाना खाकर दूसरे तरफ से निकलते जाते हैं। दूसरे लोगों के बैठने के पहले टेबल साफ करने की  प्रक्रिया है वो भी पलक झपकते ही होती है। खाना खाते खाते करीब 12 बज चुके थे। खाना खा चुकने के बाद या यूँ कहिये तो प्रसाद ग्रहण करने के बाद हम यहाँ से सीधे कमरे में आ गए। रास्ते में जगह जगह बैनर और बोर्ड पर पिछले महीने यहाँ दर्शन के लिए आये श्रद्धालुओं, अन्नप्रसादम ग्रहण करने वाले, लडडुओं की संख्या और मुंडन करवाने वाले लोगो की जानकारी उपलब्ध कराई गयी थी वो अपने आप में चौकाने वाली थी। 

दर्शन के लिए आये हुए श्रद्धालुओं की संख्या : 29,00,000 (29 लाख मतलब करीब 1 लाख लोग हर दिन)
अन्नप्रसादम ग्रहण करने वाले लोगों की संख्या : 78,00,000 (78 लाख )
मुंडन करवाने वाले लोगों की संख्या : 14,00,000 (14 लाख)
लडडुओं की संख्या : 1,50,00,000 (1.5 करोड़)

1 बजते बजते हम गेस्ट हाउस पहुंच गए और कुछ देर आराम करने करने बाद करीब 1:30 बजे हम फोटो खींचने और यहाँ के बाजार घूमने के लिए निकले। मंदिर से लौट कर आते हुए मुझे बरगद (तेलुगु में बरगद को मर्रीचटटु कहते हैं) का एक बहुत ही बड़ा पेड़ दिखा था और उसकी फोटो लेने के लिए हमें करीब 1 किलोमीटर जाना पड़ा। ये पेड़ जितने में फैला हुआ था कि इसकी छाया में करीब 500 लोग एक साथ बैठ सकते थे। हमने भी कुछ देर वहां उसकी छाया का आनंद लिया और कुछ सामान की खरीदारी करके वापस कमरे पर आ गए और रास्ते में एक जगह फिर से खाना भी खा लिया। अब तक 3:00 बजे चुके थे। अब हमें यहाँ से वापस तिरुपति जाना था। कुछ देर आराम करने और सामान पैक करते करते 4:30 बज गए। करीब 4:45 बजे हम गेस्ट हाउस से वापस जाने के लिए निकले और सीधा बस पड़ाव पर पहुंच गए। बस पड़ाव पर लोगों की भीड़ बहुत ही ज्यादा थी, फिर भी एक बस में मुझे सीट मिल गई। बस खुलने से पहले मैंने कंडक्टर से ये पूछ लेना उचित समझा कि मैंने आने-जाने का टिकट एक साथ ले लिया तो वो टिकट आपकी बस में मान्य है या नहीं। कंडक्टर के अनुसार मेरा टिकट तिरुमला आने वाले हर बस में मान्य था। वैसे तिरुपति से तिरुमला और तिरुमला से तिरुपति के लिए मंदिर समिति द्वारा संचालित फ्री बस सेवा भी उपलब्ध है, लेकिन फ्री होने कारण उसमे इतनी भीड़ होती है खड़े होकर भी यात्रा करना बहुत ही मुश्किल काम है। 




हमारी बस जल्दी ही बस यहाँ से तिरुपति के लिए प्रस्थान कर गई। जब रात में मैं तिरुपति से तिरुमला आ रहा था तो ऊपर से तिरुपति शहर ऐसा लग रहा था जैसे आकाश जमीन पर आ गया हो और इस समय पूरा तिरुपति शहर साफ दिख रहा था। इसकी खूबसूरती इस समय बिलकुल किसी सपने के शहर के जैसा लग रहा था। करीब एक घंटे के सफर के बाद 6:00 बजे बस तिरुपति रेलवे स्टेशन पहुँच गई। रेलवे स्टेशन के पास ही विष्णु निवासम में मैंने पहले से ही कमरा बुक कर रखा था। तिरुपति में मंदिर समिति के तीन गेस्ट हाउस हैं जिनके नाम माधवन, श्रीनिवासम और विष्णु निवासम, जिसमे से विष्णु निवासम तिरुपति रेलवे स्टेशन के सामने है। बस से उतरकर हम सीधा गेस्ट हाउस में गए और यहाँ मुझे चौथे मंज़िल पर 456 और 467 नंबर का कमरा मिला। कमरे में जाते ही सबने पहले रात की अधूरी नींद पूरी की और जब बादलों की गड़गड़ाहट की आवाज से आँख खुली तो 8 बज चुके थे और बाहर भारी बारिश हो रही थी। अब तो तिरुपति का बाजार भी घूम पाना मुश्किल था। खाने के लिए पता किया तो मालूम हुआ कि खाने का इंतज़ाम दूसरी मंज़िल पर है और तिरुमला की तरह यहाँ भी खाना फ्री है। हम लोग दूसरी मंज़िल पर जाकर एक बार अन्नप्रसादम ग्रहण किये (खाना खाये) और फिर अपने कमरे में आकर कल की तैयारी करके सोने की तैयारी में ही थे कि मेरे एक मित्र नरेंद्र शोलेकर जी का एक मैसेज आया और उस मैसेज के अनुसार मुझे अपनी कल की योजना में बदलाव करना पड़ा और पद्मावती मंदिर में देवी के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 

ऐसे तो कल के मेरी प्लांनिग के अनुसार कल सुबह उठकर तिरुपति का बाजार घूमना था और फिर 10 बजे की ट्रेन से चेन्नई और फिर रामेश्वरम लेकिन नयी योजना के अनुसार कल सबसे पहले पद्मावती देवी के दर्शन करना उसके बाद 10 बजे की ट्रेन से चेन्नई और फिर रामेश्वरम जाने का प्लान बना। इस पोस्ट में बस इतना ही, पद्मावती मंदिर की कहानी अगले पोस्ट में। बस जल्दी ही मिलते है अगले पोस्ट के साथ। 



कुछ बातें तिरुपति बालाजी के बारे में 


तिरुमाला पर्वत पर स्थित भगवान बालाजी के मंदिर की महत्ता कौन नहीं जानता। भगवान व्यंकटेश स्वामी को संपूर्ण ब्रह्मांड का स्वामी माना जाता है। हर साल करोड़ों लोग इस मंदिर के दर्शन के लिए आते हैं। साल के बारह महीनों में एक भी दिन ऐसा नहीं जाता जब यहाँ वेंकटेश्वरस्वामी के दर्शन करने के लिए भक्तों का ताँता न लगा हो। ऐसा माना जाता है कि यह स्थान भारत के सबसे अधिक तीर्थयात्रियों के आकर्षण का केंद्र है। इसके साथ ही इसे विश्व के सर्वाधिक धनी धार्मिक स्थानों में से भी एक माना जाता है।

मंदिर के विषय में अनुश्रुति 
प्रभु वेंकटेश्वर या बालाजी को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि प्रभु विष्णु ने कुछ समय के लिए स्वामी पुष्करणी नामक तालाब के किनारे निवास किया था। यह तालाब तिरुमाला के पास स्थित है। तिरुमाला- तिरुपति के चारों ओर स्थित पहाड़ियाँ, शेषनाग के सात फनों के आधार पर बनीं 'सप्तगिर‍ि' कहलाती हैं। श्री वेंकटेश्वरैया का यह मंदिर सप्तगिरि की सातवीं पहाड़ी पर स्थित है,जो वेंकटाद्री नाम से प्रसिद्ध है।
वहीं एक दूसरी अनुश्रुति के अनुसार, 11वीं शताब्दी में संत रामानुज ने तिरुपति की इस सातवीं पहाड़ी पर चढ़ाई की थी। प्रभु श्रीनिवास (वेंकटेश्वर का दूसरा नाम) उनके समक्ष प्रकट हुए और उन्हें आशीर्वाद दिया। ऐसा माना जाता है कि प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त करने के पश्चात वे 120 वर्ष की आयु तक जीवित रहे और जगह-जगह घूमकर वेंकटेश्वर भगवान की ख्याति फैलाई।
वैकुंठ एकादशी के अवसर पर लोग यहाँ पर प्रभु के दर्शन के लिए आते हैं,जहाँ पर आने के पश्चात उनके सभी पाप धुल जाते हैं। मान्यता है कि यहाँ आने के पश्चात व्यक्ति को जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्ति मिल जाती है। 

मंदिर का इतिहास
माना जाता है कि इस मंदिर का इतिहास 9वीं शताब्दी से प्रारंभ होता है, जब काँच‍ीपुरम के शासक वंश पल्लवों ने इस स्थान पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था, परंतु 15 सदी के विजयनगर वंश के शासन के पश्चात भी इस मंदिर की ख्याति सीमित रही। 15 सदी के पश्चात इस मंदिर की ख्याति दूर-दूर तक फैलनी शुरू हो गई। 1843 से 1933 ई. तक अंग्रेजों के शासन के अंतर्गत इस मंदिर का प्रबंधन हातीरामजी मठ के महंत ने संभाला। 1933 में इस मंदिर का प्रबंधन मद्रास सरकार ने अपने हाथ में ले लिया और एक स्वतंत्र प्रबंधन समिति 'तिरुमाला-तिरुपति' के हाथ में इस मंदिर का प्रबंधन सौंप दिया। आंध्रप्रदेश के राज्य बनने के पश्चात इस समिति का पुनर्गठन हुआ और एक प्रशासनिक अधिकारी को आंध्रप्रदेश सरकार के प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किया गया।

मुख्य मंदिर
श्री वेंकटेश्वर का यह पवित्र व प्राचीन मंदिर पर्वत की वेंकटाद्रि नामक सातवीं चोटी पर स्थित है, जो श्री स्वामी पुष्करणी नामक तालाब के किनारे स्थित है। इसी कारण यहाँ पर बालाजी को भगवान वेंकटेश्वर के नाम से जाना जाता है। यह भारत के उन चुनिंदा मंदिरों में से एक है, जिसके पट सभी धर्मानुयायियों के लिए खुले हुए हैं। पुराण व अल्वर के लेख जैसे प्राचीन साहित्य स्रोतों के अनुसार कल‍ियुग में भगवान वेंकटेश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करने के पश्चात ही मुक्ति संभव है। पचास हजार से भी अधिक श्रद्धालु इस मंदिर में प्रतिदिन दर्शन के लिए आते हैं। इन तीर्थयात्रियों की देखरेख पूर्णतः टीटीडी के संरक्षण में है।

मंदिर की चढ़ाई
पैदल यात्रियों हेतु पहाड़ी पर चढ़ने के लिए तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम नामक एक विशेष मार्ग बनाया गया है। इसके द्वारा प्रभु तक पहुँचने की चाह की पूर्ति होती है। साथ ही अलिपिरी से तिरुमाला के लिए भी एक मार्ग है।

केशदान
इसके अंतर्गत श्रद्धालु प्रभु को अपने केश समर्पित करते हैं जिससे अभिप्राय है कि वे केशों के साथ अपना दंभ व घमंड ईश्वर को समर्पित करते हैं। पुराने समय में यह संस्कार घरों में ही नाई के द्वारा संपन्न किया जाता था, पर समय के साथ-साथ इस संस्कार का भी केंद्रीकरण हो गया और मंदिर के पास स्थित 'कल्याण कट्टा' नामक स्थान पर यह सामूहिक रूप से संपन्न किया जाने लगा। अब सभी नाई इस स्थान पर ही बैठते हैं। केशदान के पश्चात यहीं पर स्नान करते हैं और फिर पुष्करिणी में स्नान के पश्चात मंदिर में दर्शन करने के लिए जाते हैं। 
सर्वदर्शनम
सर्वदर्शनम से अभिप्राय है 'सभी के लिए दर्शन'। सर्वदर्शनम के लिए प्रवेश द्वार वैकुंठम काम्प्लेक्स है। वर्तमान में टिकट लेने के लिए यहाँ कम्प्यूटरीकृत व्यवस्था है। यहाँ पर निःशुल्क व सशुल्क दर्शन की भी व्यवस्था है। साथ ही विकलांग लोगों के लिए 'महाद्वारम' नामक मुख्य द्वार से प्रवेश की व्यवस्था है, जहाँ पर उनकी सहायता के लिए सहायक भी होते हैं।

प्रसादम
यहाँ पर प्रसाद के रूप में अन्न प्रसाद की व्यवस्था है जिसके अंतर्गत चरणामृत, मीठी पोंगल, दही-चावल जैसे प्रसाद तीर्थयात्रियों को दर्शन के पश्चात दिया जाता है।

लड्डू
पनयारम यानी लड्डू मंदिर के बाहर बेचे जाते हैं, जो यहाँ पर प्रभु के प्रसाद रूप में चढ़ाने के लिए खरीदे जाते हैं। इन्हें खरीदने के लिए पंक्तियों में लगकर टोकन लेना पड़ता है। श्रद्धालु दर्शन के उपरांत लड्डू मंदिर परिसर के बाहर से खरीद सकते हैं।

ब्रह्मोत्सव
तिरुपति का सबसे प्रमुख पर्व 'ब्रह्मोत्सवम' है जिसे मूलतः प्रसन्नता का पर्व माना जाता है। नौ दिनों तक चलने वाला यह पर्व साल में एक बार तब मनाया जाता है, जब कन्या राशि में सूर्य का आगमन होता है (सितंबर, अक्टूबर)। इसके साथ ही यहाँ पर मनाए जाने वाले अन्य पर्व हैं - वसंतोत्सव, तपोत्सव, पवित्रोत्सव, अधिकामासम आदि।

विवाह संस्कार
यहाँ पर एक 'पुरोहित संघम' है, जहाँ पर विभिन्न संस्कारों औऱ रिवाजों को संपन्न किया जाता है। इसमें से प्रमुख संस्कार विवाह संस्कार, नामकरण संस्कार, उपनयन संस्कार आदि संपन्न किए जाते हैं। यहाँ पर सभी संस्कार उत्तर व दक्षिण भारत के सभी रिवाजों के अनुसार संपन्न किए जाते हैं।

रहने की व्यवस्था
तिरुमाला में मंदिर के आसपास रहने की काफी अच्छी व्यवस्था है। विभिन्न श्रेणियों के होटल व धर्मशाला यात्रियों की सुविधा को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं। इनकी पहले से बुकिंग टीटीडी के केंद्रीय कार्यालय से कराई जा सकती है। वैसे आजकल तो इंटरनेट का जमाना है तो इसकी बुकिंग तिरुमला-तिरुपति देवसंस्थानम की वेबसाइट पर हो जाती है और बुकिंग 2-3 माह पहले करवानी पड़ती है। 

कैसे पहुँचें?
तिरुपति सड़क और रेलमार्ग द्वारा देश के सभी शहरों से जुड़ा है। देश के बड़े शहरों से तिरुपति तक पहुँचने के लिए सीधी रेल सेवा है। इसके अलावा जिन शहरों से तिरुपति तक रेल सेवा नहीं है वो चेन्नई होते हुए तिरुपति जा  सकते हैं। चेन्नई से तिरुपति की दूरी करीब 150 किलोमीटर है। चेन्नई से तिरुपति जाने के लिए बसें भी बहुतयात में उपलब्ध है। तिरुपति से तिरुमला तक बस से या पैदल जाना होता है। 

मंदिर में दर्शन 
भगवान वेंकटेश्वर मंदिर में दर्शन चार तरह से होते हैं :
1. ऑनलाइन बुकिंग द्वारा जिसकी बुकिंग https://ttdsevaonline.com पर दो से तीन महीने पहले करनी होती है और दिए गए तारीख को आप दिए समय से 2 घण्टे पहले लाइन में लगना होता है और दर्शन करने में करीब 2 घंटे का वक़्त लगता है। इसकी बुकिंग भी हर घंटे के हिसाब से होती है। इस दर्शन की बुकिंग के लिए 300 रूपये प्रति व्यक्ति के हिसाब से बुकिंग के समय ऑनलाइन भुगतान करना पड़ता है और  दर्शन के बाद प्रसाद के रूप में 2 लडडू मुफ्त। 
2. अगर आपने ऑनलाइन  बुकिंग नहीं तो तिरुमला स्थित किसी भी बैंक में 1000 रूपए भुगतान करके 300 रूपए वाला कूपन लेकर दिए गए समय से 2 घण्टे पहले लाइन में लगे और 2 घंटे में दर्शन करें। 
3. फ्री दर्शन लाइन इसे सुदर्शन लाइन कहते हैं। यह 12 से 14 घण्टे हॉल में बैठने के बाद दर्शन के लिए छोड़ते हैं। 
4. अगर आप ट्रेकिंग पथ से तिरुपति से तिरुम्माला जाये तो 50 रूपये के पर्ची कटवाना पड़ता है और करीब 10 किमी की आसान चढ़ाई है और दर्शन मात्र 3 घंटे में होंगे और प्रसाद के रूप में 1 लड्डू फ्री। जब आप तिरुपति से तिरुम्माला पैदल जा रहे होते है तो ये यात्री पैदल ही जा रहा है या नहीं ये देखने के लिए पूरे रास्ते में 3-4 जगहों पर चेकिंग होती है।